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________________ ९६]. [ वैगम्य-सूत्र ( २२ ) संवेगेगां अणुत्तरं धम्म सद्धं जणयइ । " उ०,२९, प्र, ग० टीका-~-सवेग और वैराग्ये से ही श्रेष्ठ वर्म के प्रति, जैन धर्म के प्रति और सात्विक क्रिया मय आचरण के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है, इन पर विश्वास जमता है । ( ३) निऐण दिव्य माणुस तेरिच्छिपमु काम भोगेसु निव्वयं हव्व मागच्छद। उ०, २१, द्वि०, ग० , , , टीका-ससार-मुख के प्रति तटस्थ वृत्ति एवं उदासीन भावना होने पर ही देवता सवधी, मनुष्य सर्वधी और तिर्यच. सबघी कामभोगो के प्रति और इन्द्रिय-मुखो के प्रति वैराग्य भाव पैदा हुआ करते है, इसलिये त्याग-भाव और अरुचि-भाव के लिये तटस्थ भावना की अति आवश्यकता है। . .. ____ 1. ( २४ .. विरत्ता,उ न लग्गन्ति, . . . . जहा से सुक्क गोलए। .", ..~ उ, २५, ४३ . टीका--जैसे सूखा हुया गीला भीत पर नहीं चिपकत ही विरक्त आत्माओ के-विपय-मुक्त आत्माओं के तथा अनासक्त आत्मानों के भी कर्मों का वचन नही होता है।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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