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________________ वैराग्य-सूत्र ( १ ) एगे अहमंसिं, न म अस्थि कोइ, न या हमवि कस्स वि । आ०, ८, २१६, उ, ६ } टीका - हे आत्मा । तू विचार कर कि मैं अकेला ही हूँ, जन्म लेते समय भी कोई साथ में नही था, और मरते समय भी कोई साथ में आने वाला नही है । सासारिक कामो को करते समय और सासा 1 रिक सुख वैभव में हिस्सा बटाते समय तो सभी सम्मिलित हो जाते 1 " है, परन्तु पाप का उदय होने पर - कर्मो का फलोदय होने पर कोई भी हिस्सा नही वटाता है, अकेले को ही भोगना पड़ता है । इसलिए विचार कर कि “मैं अकेला ही हूँ, मेरा कोई नही है, और मै भी किसी दूसरे का नही हूँ ।" इस प्रकार की एकत्व-भावना से ही आत्मिक शांति की सम्भावना है। 1 - ( २.) परिज़रइ ते सरीर यं, समयं गोयम ! मा पमायएँ । ་ ०, १०, २१ टीका -- तुम्हारा शरीर क्षण प्रतिक्षण जीर्ण और अशक्त होता जा रहा है, इसलिये हे गौतम । क्षण भर का भी प्रमाद मत कर 1 1 (3) विess विद्ध सरी यं समय गोयममा पमाय ०, १०, २७ f
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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