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________________ ८२ ( १५ ) विसएस मणुन्नेसु पेमं नाभिं निवेसए । द०, ८, ५९ टीका - इन्द्रियों के विपयो की ओर अथवा भोगोपभोग पदार्थों की ओर एव विषय-वासना के पोषण की ओर मनको नही जाने देना चाहिये । विकारो की ओर मानसिक आकर्षण भी नही होने देना । चाहिये । आसक्ति या अनुराग-भाव को मनोज्ञ - विषयो मे पैदा नही हाने देना चाहिये | ( १६ ) नारीसु नोवगिज्झज्जा, धम्मं च पेललं गच्चा । उ०, ८, १९ : [ शील- ब्रह्मचर्यं सूत्र टीका — धर्म को — दान, शील, तप, भावना को ही सुन्दर जान - कर, कल्याणकारी जान कर, स्त्रियोमे कभी भी गृद्ध न बनो, मूच्छित वनो । ब्रह्मचर्यं को ही सर्वस्त्र समझो । इसको ही कल्याण का मूल आधार समझो । ↓ ( १७ ) न य रुसु मणं करे । द०, ८, १९ टीका -- रूपवती सुन्दर स्त्रियो को देख कर मन को चल नही करना चाहिये । विषय विकार की ओर से मन रूपी घोड़े को ज्ञान रूपी लगाम से रोककर ध्यान रूपी क्षेत्र में, चिंतन-मनन रूपी मैदान मे और सेवामय आगण मे लगाना चाहिये । ( १८ ) निव्विष्ण चारी श्ररए पयासु । आ०, ५, १५५, उ, ३ :
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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