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________________ - सूक्ति-सुधा] ७९ . : " . (४). ..... . न त सुहं काम- गुणेसु राय, . जंभिक्खुणं सील गुणे रयाणं। .. उ०, १३, १७ टीका-शील गुण मे अनुरक्त आत्मार्थी मुनियों को जो उच्च आनन्द, जो आत्म शांति प्राप्त होती है; वैसी सुख-शांति, वैसा आत्म-आनंद, काम भोगों में फंसे हुए मनुष्य को कदापि प्राप्त नही हो सकता है । (५) जे विन्नवणा हिजोसिया, संतिन्नेहि सम वियाहिया। सू०२, २, उ, ३ टीका-जो पुरुष स्त्रियोंसे सेवित नहीं है; यानी मन, वचन और काया से ब्रह्मचारी है; वे वास्तव मे मुक्त पुरुषों के समान ही है । अचल ब्रह्मचर्य अवस्था मुक्ति अवस्था ही है। सुबमचेरै वसेजा। . . . . टीका-ब्रह्मचर्य का भली भांति फालन करो । एक ब्रह्मचर्य के परिपालन से ही सभी दोष और पाप इस प्रकार नष्ट हो जाते है। जैसे कि सूर्य के प्रकाश से संपूर्ण विश्व मे व्याप्त अंधकार नष्ट हो जाता है। - (७) । . उग्ग. महव्वयं- बंभ, धारेयव्यं सुदुक्करं । । . . उ०, १९, २२ ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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