SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [धर्म-सूत्र विमा..२८, तीर्थकर धर्म पर टीका-यतना पूर्वक, विवेक पूर्वक कार्य करने की प्रणाली चार 'कार की कही गई है । १ द्रव्य से २ क्षेत्र से ३ काल से और ४ बाम से। (३०) धम्माणं कासवो मुहं। उ०, २५, १६ टीका-~-धर्मों का मुख-धर्मो का आदि स्रोत भगवान ऋपभदेव . यानी भरत-क्षेत्र मे धर्म और नीति, विवेक और दर्शन-शास्त्र के मादि प्रणेता तथा सर्व प्रथम धर्म का उपदेश देने वाले भगवान ऋषभदेव स्वामी ही है। (३१) सद्दहइ जिपमिहियं सो धम्मरुइ । उ०.२८, २७ टीका-जिन द्वारा, अरिहत द्वारा, तीर्थंकर द्वारा, अथवा गणघर या स्थविर आचार्य द्वारा प्रणीत और प्ररूपित धर्म पर जो श्रद्धा करता है, इसीका नाम धर्म रुचि है। (३२) थव थुइ मंगलेणं नाण दसणंचरित्त वोहि लाभ जणयइ । __उ०, २९, १४वाँ, ग० टीका-अरिहत, सिद्ध और जिनेन्द्र देवो की स्तवः और स्तुतिx करने से, इनका भगल गान करने से, आत्मा मे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, रत्नत्रयकी वृद्धि होती है, नकी विशुद्धि होती है। * स्तव-इन्द्र, गणघर, पूर्वधर, स्थविर कृत ईश्वर- प्रार्थना । स्तुति-प्रत्येक भव्य जीव द्वारा कृत प्रार्थना, स्तवन, भजन आदि हार्दिक पवित्र भावना वाले विचार ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy