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________________ ( " २ ) A प्रश्न यह होता है कि इस समय ऐसी पुस्तिका प्रकट करने की क्या आवश्यकता है? इसके समाधान में यह कहना होगा कि तेरह-पन्थी लोगों ने जहाँ कि इनका कोई अस्तित्व ही नहीं है, उन प्रान्तों में जाकर स्थानकवासी जैन समाज के साधु श्रावकों की निन्दा करके दम्भ द्वारा अपने मन्तव्यों का |प्रचार करना प्रारम्भ किया है और साधारण समझ वाली स्थानकवासी जैन जनता को चक्कर में डालने की चेष्टा कर रहे हैं। यह देखकर. राजकोट की श्री जैन ज्ञानोदय सोसायटी ने जैन समाज की रक्षा के हेतु यह निवन्ध पं० श्री शंकरप्रसादजी दीक्षित से तैयार करवाकर मण्डल को प्रकाशित करने के लिए अनुरोध किया, उनके आग्रह को मान देकर मण्डल ने यह पुस्तक प्रकाशित की है । 1 TM इस समय विश्वव्यापी महायुद्ध के कारण कागन आदि छपाई के साधनों की मेंहगाई होने से लागत बहुत बैठी है । इसलिये मण्डल ऑफिस इस प्रयत्न में था कि कोई साहित्य प्रेमी सज्जन इसे अर्द्ध मूल्य में करदें। यह प्रकट करते हुए अत्यन्त प्रसन्नता होती है, कि श्रीमान् सेठ ताराचन्दजी भागचन्दजी साहब गेलढ़ा ने इस पुस्तक को भर्द्ध मूल्य ।) चार आने में वितरण कराकर हमारा उत्साह बढ़ाया है । इस गेलढ़ा परिवार ने पृथक २ नामों से व्याख्यान-सार-संग्रह के कई पुष्प भई मूल्य मैं वितरण कराये हैं। अतः श्रीमान् गेलड़ाजी को धन्यवाद देते हुए, आपकी उदारता को साभार स्वीकार करते हैं। " इसी तरह श्रीमान् मिश्रीलालजी जैवरीलालजी अजमेर वालों ने भी कुछ रकम भेजी है, जिसके लिये हम उनके आभारी हैं, परन्तु रकम कम होने से उनकी तरफ से भर्द्ध मूल्य में करने से मजबूर हैं । रतलाम, मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा सं० १९९९ - प्रकाशक --
SR No.010339
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1942
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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