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________________ कदाचित् यह कहो कि यह बात तो दान में अन्तराय डालने विषयक है। तो हम पूछते हैं कि दान लेने वाला तो अपने पर ऋण कर रहा था और बकरा ऋण चुका रहा था। जब ऋण करने वाले को अन्तराय देना भी पाप है, तब क्या ऋण चुकाने वाले को अन्तराय देना धर्म कैसे होगा ? अगर पाप नहीं मानते वो धर्म तो कहिये । कदाचित यह कहो कि हमारा भाव कर्म ऋण चुकाते हुए 'को अन्तराय देने का नहीं था, इसलिए हमको अन्तराय का पापं नहीं लग सकता, तो आपका यह उत्तर सुनकर तो हमको बहुत प्रसन्नता होगी। क्योंकि जब भाव न होने से आपको अन्तराय का पाप नहीं लग सकता, तब भाव न होने के कारण किसी मरते हुए प्राणी की रक्षा करने में वह पाप भी नहीं लग सकता, जो बचाये गए प्राणी द्वारा भविष्य में होंगे, पचाने वाले को जिनका लगना बताकर, जीव बचाने को आप पाप कहते हैं। तीसरी दलील सुनिये ! मान लीजिये कि एक साधु को एक मास की तपस्या है। साधु को धर्म का ज्ञान है और वे सम भाव पूर्वक कष्ट सहन करके कर्म को निर्जरा करने के लिए ही साधु हुए हैं। उनको जब तक माहार नहीं मिलता है, तब तक उनके कर्म की महा निर्जरा होती है। क्योंकि आहार न मिलने पर भी साधु लोग बात ध्यान और. रौद्र ध्यान तो करेंगे ही नहीं।
SR No.010339
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1942
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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