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________________ ( २९ ) भरिष्टनेमि स्वयं भी जानते थे कि मुझको विवाह नहीं करना है । ऐसा होते हुए भी उन्होंने अपने विवाह की तैयारी का हो विरोध क्यों नहीं किया; किन्तु स्नान द्वारा असंख्य एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा को और वारात द्वारा होने वाली त्रस तथा स्थावर जीवों की हिंसा भी देखते रहे। इन दोनों हिंसाओं का उन्होंने कोई विरोध नहीं किया, न उनके विषय में यही कहा, कि यह हिंसा परलोक में मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं हो सकती । वल्कि स्नान द्वारा जळका आश्रित अनन्त जीवों को हिंसा तो उन्होंने अपने हाथ से ही की थी। बाड़े में बन्द पशु-पक्षियों की जो हिंसा होती, वह उनके स्वयं के हाथ से न होती । इसके सिवाय बाड़े में बन्द पशु-पक्षियों की संख्या भी सीमित ही हो सकती है । सौ-दो सौ, हजार-दो हजार या अधिक से अधिक दस हजार मान लीजिये । लेकिन जल के जो स्थावर जीव मरे, उनका तो अन्त ही नहीं है, न उन जीवों की ही संख्या हो सकती है, जो बारात के सजने और जाने में त्रस तथा स्थावर जीव मारे गये। फिर बाड़े में बन्द थोड़े से जीवों की हिंसा के लिए तो कहा कि मेरे लिए परलोक में यह हिंसा श्रेयस्कर नहीं हो सकती और जलादि के अनन्त जीवोंके लिए ऐसा कुछ भी नहीं कहा, न उनकी हिंसा के लिए खेद या पश्चाताप ही किया । ५ -
SR No.010339
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1942
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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