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________________ (१०) राजा प्रदेशी का, दानशाला खोलने का कार्य भी पाप-रूप था। इस प्रकार वे जैन-शास्त्र की उन समस्त पातों को पाप ठहराते है कि जो बातें जैन-शास्त्रों के लिए आदर्श और भूषण रूप हैं। तेरह-पन्यो साधुओं ने अपने सुख, अपनी सुविधा और अपनी रक्षा के सब मार्ग तो खुले रखे हैं। जैसे (क) विहार करते समय, रास्ते की सेवा के नाम से प्रहस्यों को साथ रखना और उसमें महा लाम बताना । (ख) गृहस्थ श्रावक अपनी आवश्यकता से अधिक भोजन बना कर भावना के नाम से आमंत्रण देवे और साधु लोग उनके साथ जाकर बगैर छान-धीन किये ही ले आवें। (ग) गृहस्थों को, सेवा में रहने के लिये, त्याग कराना और वारीसर उनको सेवा में रखना। इन सब में धर्म एवं महा लाभ बताया है, परन्तु अपने से सम्बन्धित कार्यों के सिवाय शेष समस्त कार्यों को वे पाप ही पाप बताते हैं, किसी भी कार्य में धर्म अथवा पुण्य नहीं मानते। __जो ऊपर दस पातें बताई हैं उन कार्यों में तेरह-पन्थी लोग धर्म व पुण्य नहीं मानते, किन्तु पाप ही बताते हैं । कोई उन्हें पूछे कि ये काम पाप के क्यों हैं ? तो छल-पूर्ण इधर-उधर की बातें करेंगे और प्रश्न को टालने का प्रयत्न करेंगे, जिससे इन कार्यों .
SR No.010339
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1942
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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