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________________ ( १५१ ) वे मानते हैं उसमें किसी भी तरह का परिवर्तन करना उनको मंजूर ही नहीं, तब चर्चा से मतलब ही क्या निकल सकता है ? परिवर्तन करना उनकी दृष्टि से धर्म - च्युत होना है । 'कोई बात कितनी ही ग्रहण करने योग्य क्यों न हो, अगर शास्त्र में उसको ग्रहण करने का नहीं लिखा है, तो वह श्रग्राह्य ही है ।' मेरी समझ में जीवन विकास करने वाले की यह दृष्टि नहीं हो सकती । ऐसे आदमी को मैं शास्त्रों के प्रति सच्चा भले ही कह दूँ, पर जीवन के प्रति या मनुष्यता के प्रति तो कभी सच्चा नहीं मान सकता । जिस जीवन में मुझे स्पष्ट मानवता का विरोध दिखाई दे रहा है या कम से कम मानवता की तरफ उपेक्षा पोषित की ना रही है, उसका लाख लाख शास्त्र समर्थन करें तो भी मैं उसे निर्दोष नहीं कह सकता | साधुत्व का वेष पहन लेने के कारण ये साधु संसार से अपना कोई वास्ता नहीं समझते, यह देख और सुनकर तो मेरे आश्चर्य का पार न रहा । 'संसार त्याग' का अर्थ इन्होंने यह किया है कि अब संसार के प्रति उनकी कोई जिम्मेवारी ही नहीं रह गई है। उनका उद्देश्य तो आत्म कल्याण की साधना करना * शास्त्रों के पाठ का अर्थ चाहे कुछ भी होता हो । पर उन्होंने जो मान रक्खा है, उसी को आगे लाते हैं; किन्तु सूत्र के फलीतार्थ या आशय पर विचार करने की शक्ति हो नहीं है । - - प्रकाशक
SR No.010339
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1942
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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