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________________ ( ११५ ) गये। इसलिए तेरह-पन्थी तीर्थकरों से भी व्यादश ज्ञानी ठहरे ! तीर्थकरों के भी गुरु ठहरे ! एक बात और है। भगवान श्ररिष्टनेमि, भगवान पार्श्वनाथ या भगवान महावीर ने जो भूल की थी, उन्हें अपनी उस भूल को स्वीकार करके जनता को सावधान कर देना चाहिए था, कि मैंने यह भूल की है, लेकिन तुम कोई इस तरह की भूल मत करना | कम से कम उन भावकों को तो इस बात से परिचित कर ही देना चाहिए था, जिन श्रावकों ने भगवान तीर्थङ्कर के पास व्रत स्वीकार किये थे । तेरह-पन्थी लोगों के इस कथनानुसार कि- "धर्म अधर्म की पहचान साधु हो कराते हैं, +" भगवान महावीर का यह कर्तव्य था, कि धावकों को अधर्म की पहचान कराने के लिए, श्रावकों को विचार बताने के साथ ही साथ यह भी कह देते कि - "किसी मरते हुए जीव को बचाना पाप है, अतः इस पाप से भी बचना " इसलिए तेरह पन्थियों की मान्यतानुसार क्या भगवान महावीर को कर्तव्य से पतित मानना उचित होगा ? यह बात तो किसी भी जैन को स्वीकार नहीं हो सकती। इसलिए इसी निश्चय पर पहुँचा • + देखो 'भ्रम विध्वंसन' गृष्ट ५०-५१ जिसका उद्धरण हम पिछले प्रकरण में दे चुके हैं।
SR No.010339
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1942
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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