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________________ ( १०२ ) हुए लोगों को खिलाता पिठाता हुआ, शील व्रत प्रत्याख्यान पौषधोपवास करता हुआ विचरूँगा । इस शास्त्र पाठ से भी सिद्ध है कि साधु के सिवाय अन्य लोगों को दान देना एकान्त पाप नहीं है । इसी प्रकार साधुओं के लिए ५ भी दीन-दुःखी भिक्षुक आदि को दान देने के लिए उपदेश देना, पाप नहीं है। यदि साधु के सिवाय अन्य लोगों को दान देना, या देने का उपदेश देना एकान्त पाप होता, तो केशी श्रमण राजा प्रदेशी को दान देने के लिए उपदेश ही कैसे देते और राजा प्रदेशी, श्रावक बनने के पश्चात् सब को दान देने के लिए दानशाला बनवाने की केशी स्वामी के सामने प्रतिज्ञा ही क्यों करता ? यह बात तो थोड़ी बुद्धि वाला भी समझ सकता है कि जो प्रदेशी राजा नास्तिक था, दान-पुण्य, आत्मा-परमात्मा या साधु भिक्षुक आदि किसी को मानता ही न था, उसको यदि केशी श्रमण ने दान देने का निषेध कर दिया होता, तो वह दानशाळा विषयक योजना कैसे बनाता, तथा वह योजना केशी श्रमण को क्यों सुनाता १ -इससे स्पष्ट है, कि - ( १ ) दीन-दुःखी भिखारी आदि को दान देना एकान्त पाप नहीं है । ( २ ) साधु का इस विषयक उपदेश देना भी एकान्त पाप नहीं है, किन्तु इस विषय परत्वे निषेध करना ही पाप है । :.
SR No.010339
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1942
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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