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________________ ७६ जैन बालबोधक कापत नार वह मुख लार, महामति संगति छांरि गई हैं । - अंग उपंग पुराने परे, तिसनी उर और नवीन भई है ॥ ५ ॥ कवित्त मनहर | रूपको न खोज रह्यो तरुज्यों तुषार. दह्यो, भयो पतकार किधौं रही डार सूनीसी | कूबरी भई है कठि दूबरी भई देह, ऊर्वरी इतेक आयु सेरमाहि पूँनीसी || जोबनने विदा· लीनी जरानै जुहार कीनी, हीनी भई सुधिबुधि सर्वैवात उनी-सी ॥ तेज घट्यो तात्र घट्यो जीतवको चाव घट्यो, और सव. घट्यो एक तिस्ना दिन दूनीसी || ६ || अहो इन थापने प्रभाग उदै नाहि जानी, वीतराग वानीसार दयारस-भीनी | जोवनके जोर थिरंजंगम अनेक जीव, जानि जे सताये कछु करुना न कीनी है ॥ तेई अव जीवरास थाये परलोक पास, लेंगे चैर देंगे दुख भई ना नवीनी है। उनहीके भयको भरोसी जान कांपत है, याही टर डोकराने लाठी हाथ लीनी है ॥ ७ ॥ । जाको इंद्र चाहें अहमिंद्र से उपाहें जासौं, जासौं जीवमुक्ति माहि जाय भौमल बहाये हैं। ऐसो नरजन्मपाय विषैविष खायखोयो, जैसे कांच सीटे मूढ मानक गमावै है || माया ६ गर्दन | ७ बुद्धि छोडके चली गई । ८ गात्राणि शिथिलायंते तृष्णैका - तरुणायते । ९ शेष रही है । १० सेरभर रुईमेंसे एक पूनीकी वरावर - ११ कमतीसी । १२ स्थावर एकेंद्रिय जीव । १३ वुड्ढेने । १४ वदलेमें
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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