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________________ तृतीय भाग जिनपूजाको एक पुष्प ले, मेडक चला मोद धरके । मुआ मार्गमें हुआ देव वह, महिमा महा प्रगट करके ॥१०॥ इच्छित फल देने वाले, कामवाणको भस्म करनेवाले देवाधिदेव अरहंत भगवानके चरणों में पूजा करना सपस्त दुखोंका नाश करनेवाला अत्यावश्यकीय कार्य है । इस कारण इसे आदरपूर्वक प्रतिदिन करना चाहिये । राजगृही नगरी में महावीरस्वामीके पधारने पर फूलकी एक पांखुडी लेकर एक मेंडक पूजा करनेके भाव धारण कर चला था, वह श्रेणिक राजाके हाथीके पवितले दबकर मरगया और पूजाके भाषक पुण्यसे स्वर्गमें जाकर एक अद्धिधारी देव हुवा और उपने पूजाकै थावका फल जान उसी वक्त रूपवशरणमें आकर पूजाकी । वैयावृतके अतिचार। हरे पत्रके भीतर रखना, हरे पत्रसे ढक देना । देने योग्य भोजनादिकको, पात्र अनादर कर देना ॥ याद न रखना देनेकी विधि, अथवा देना मत्सर कर। हैं अतिचार पांच इस व्रतके, इन्हें सर्वथा तू परिहर ।। ६१ ॥ दान देनेवाली वस्तुको हरित पत्रसे स्ना, और हरित पत्रमें रखना, दान अनादरसे देना, दानकी विधि वगेरह भूल जाना, और ईर्षा बुद्धिसे देना ये पांच वैयावृत्य नामक शिक्षाव्रतके पांच प्रतिचार हैं।। ६१॥
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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