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________________ जैनबालबोधक: . फिर क्यों न दरिद दुख मुख अपनो दिखरावें ॥ है मादक अग्नि समान भरजि जि न खाओ।हे. हा० ॥२॥ कत युवा मादकन खाय खाय दुख पाते। . '. हो रोग ग्रसित फिर बिना मौंत परजाते ।। । वे वैद्य दुष्ट जो इन्हें श्रेष्ठ बतलाते । जगके जीवनका वृथा नाश करवाते । __ भैया ऐसनको दूरहित शिर नावो । हे० हा० ॥३॥ सब इक तन इकमन एक प्राण हो भाई । इक साथ कहैं द्वारन द्वारन पै जाई ।। " यह नसा बुरा है सदा अधिक दुखदाई । तिह कारण इसको तजहु भजहु जिनराई ॥" सब मिलकर सुग्द तै धर्म ध्वजा फहरावो । हे० हा० ॥४॥ इस मेरी अरज पर जरा ध्यान तुम धरना । विद्या रस तजकर जहर पान मत करना । इन नसेबाजोंकी कहीं जगतमें दर ना है सदा एकसा इनका जीना मरना। तुम जान बूझकर मूरख यत कहलायो। हे० हा०॥५॥ विद्याके वराबर नसा कोई नहिं नीका । इसके आगे हैं और नसा सब फोका ।। . यातें विद्या पढो भरम तज जीका । ____सब चमत्कार है जगमें विद्याहीका ॥ इन नसे बाजोंको भली भांति समझावो । हे० हा०॥६॥
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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