SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनबालबोधकदेकर लौट आया उस दिनसे मुझे उस पर वडा विश्वास हो गया था, एक दफे मैंने उसे भिक्षा मांगनेके लिये अकेला भेजा और कुत्ता आदिके ताडनेके लिए अपनी लाठी भी देदी वह उसे लेकर चला गया परन्तु फिर लौटकर नहीं आया मैंने बहुत तलास किया परंतु उसका पता न चला इसी तरह और भी उसने एक दो कथा सुनाई जिससे कोत. वालको निश्चय हो गया और उस तापसीकी तलासमें ब्राह्मणको ही नियत किया । वह भिनुक ब्राह्मण वहांसे चलकर तापसीके पाश्रममें पहुंचा और अधा बनकर चिल्लाने लगा कि मैं अंधा हूं अव रात्रि हो गई है इसलिये घर नहि जा सकता अतः मुझे रात्रिमें यहां ठहर जाने दो यद्यपि तापसीके शिष्योंने वहांसे भगा दिया परतु वह वहीं गिर पडा और भागेको न वदा । तापसीके शिष्य चले गये और कहने लगे यह तो अंधा है अपने काममें कुछ बाधा नहीं डाल सकता इसलिये यहीं पड़ा रहने दो. उधर वह वहीं पडा रात्रि के सब कृत्योंको देखता रहा। यद्यपि तापसी, रात्रिमें यह अन्धा है या नहीं इस परीक्षा के लिये एक काठकी जलती. हुई लकडी लाया परंतु उसने देखते हुए भी नहीं देखा और भांख मीचे पटा रहा । उधर वह तपस्वी रात्रि में नगर से बहुतसा धन चुराकर लाया और वहीं एक गुफामें बने हुये अंध कूपमें पटक कर उसी सीकचे में बैठ गया। यह संव देखकर भिक्षुक वहांसे चलकर कोतवालके पास माया
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy