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________________ १७० जैनबालवोधकएरे मेरे वीर काहे होत है अधीर यामें, कौऊको न सीर तू अकेलो आप सहरे। भये दिलगीर कछू पीर न विनसि नाय, ताहीत सयाने, तू तमासगीर रहरे ॥ ८॥ ४६. धनश्रीकी कथा। भृगुकच्छ नगरमें राजा लोकपाल थे । वहीं धनपाल सेठ रहता था जिसकी स्त्रीका नाम धनश्री था जो बड़ी दुष्ट और हिंसक यी ! मन दोंनोके पुत्र गुणपाल और पुत्री सुंदरी ये दो संतान पैदा हुई किंतु इसके पहिले धनश्री व धनपालने एक बालक जिसका नाम कुंडल था रख छोडा था और उसीको अपना लडका समझ रक्खा था।जव धनपाल मरगया तो धनश्रीने उम कुंडलके साथ ही पति समझकर कुकर्म करना शुरू कर दिया। थोडे दिन वादगुणपाल को यह खबर लगगई थी परन्तु पुत्र होनेसे वह कुछ कह नहीं सकता था और यह बात धनश्रीको भी खटशने लगी थी कि गुणपाल किसी तरह मरजाय तो मेरावेरोकटोक कामसेवन हो सके, इसलिये धनश्रीने कुंडलसे रात्रिमें कहा कि कल तुम गोचराने गुणपालको भेजदेना और पीछेसे जाकर '१ साझा । २ चिंतत-दुखी।
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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