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________________ १६८ जैनवालबोधक• . मनरूपी हाथीको वश करनेका उपदेश ! ज्ञान महावळ डारि, सुमति सकल गहि खंडै । गुरु अंकुश नहि गिन, ब्रह्मवत-विश्ख विहंडै । कर सिधंत सरन्हौन, केलि माघ रजसौं ठगने । करने चपलता घरै, कुमतिकरेंनी रति मान ।। डोलत सुछंद मदमत्त अति, गुण पथिक न आवत 'उरे । वैराग्य खपत वांध नर, मन-मतंग विचरत पुरै ॥ ४ ॥ गुरु उपकार। कवित्त मनहर । ईसी सराय काय पंथी जीव परयो आय, रत्नत्रय निधि जाप मोक्ष जाको घर है। मिथ्यानिशि कारी जहां मोह अंधकार भारी, कामादिकतस्कर समूहरको थर है । सोवै जो अचेत सोई खोवै निज सपंदाको, तहां गुरु पाहरू पुकार दया कर है। गाफिल न हूजे भ्रात ऐसी है अंधेरी रात, "जागरे बटोही यहां चौरजको दर " ॥५॥ कस्तूरीके लिये उनकी जीमें काटी जाती, साधु अर्थत भले जीवोपर अनुग्रह (दया) होती और दुष्ट कवियोंको दंड मिल जाता ८ ब्रह्मचर्य रूपी वृक्ष। ९ कानोकी चपलता अथवा इंद्रियोंके विषयोंकी चपलता १. हचिनी । ११ गुणरूपी मुसाफिर पास भी नहिं आते । १२ चौर। ३३धल-स्थल । १४ पहरेदार । . ... , -
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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