SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५५ • तृतीय भाग । लिया । एक समय पवनवेगा गरुडवेगकी पुत्री होमंत पर्वत पर प्रज्ञप्ति विद्या साधने के लिए आई हुई थी उसी समय वज्रकुमार भी वहां गए थे, जब यह विद्या सिद्ध कर रही थी कि जोरसे हवा चलने लगी जिससे एक कांटा उड कर पवनवेगाकी आंखमें चला गया । पवनवेग का मन उससे कुछ विचलित सा दिखाई दिया ही था कि वज्रकुमारकी दृष्टि उस पर जा पडी और शीघ्र जाकर उस कांटेको निकाल दिया जिससे पवनवेगा अपनी विद्या सिद्ध करने में सफलीभूत हुई और वारंवार वज्रकुमारकी प्रशंसा करने लगी और बोली- आपके प्रसादसे ही मुझे यह विद्या सिद्ध हुई है इस लिए चाही मेरे स्वामी होने योग्य हैं । वज्रकुमारने इसे मान लिया और इसके साथ विवाह करके अमरावती चला गया : वहां लडाई में पुरंधरको हराकर दिवाकरदेवको पुनः राज्य पर स्थापित कर दिया और आरामसे रहने लगा । कुछ दिन बाद दिवाकर देवकी त्रीके गर्भ रह गया और पुत्रको पैदा किया अब तो उसे वज्रकुमार बुरा सूझने लगा और विचार करने लगी कि मेरे पुत्रको राज्य न मिलकर इसे ही राज्य मिलेगा ! इसप्रकार के वचन एकदफे वज्रकुमारने किसी से कहते हुए जयश्रीके सुन लिए और सुनकर सीवा पिता के पास गया और वोला- मुझे यह बताइये कि मैं वस्तुतः किसका पुत्र हू जबतक आप सत्य न बतावेंगे तबतक में भोजन न करूंगा ऐसे वचन सुनकर दिवाकर देवको पूर्व वृत्तांत यथार्थ कहना
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy