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________________ १२६ जैनबालबोधक- . पहिचान कर मृढताकी तरफ न झुकना यही निमत्ता अंग है जैसा कि रेवती रानीके हष्टांतसे ज्ञात हुआ। ३५. भूधरजैन नीत्युपदेशसंग्रह चौथा भाग। eurosete सातों वार गर्भित षट्कर्मोपदेश और सप्तव्यसन निषष । प्पय : अंघ अँधेर अदित्य, निन्य स्वाध्याय करिने । सोमोपेम संसार तापहर, तप करलिज्जै । जिनवर पूजा निश्म करह, नित मंगल दायनि। बुंध संयम पादरहु, घरह चिन श्रीगुरुपायनि । निजवित समान अभिमान विन, तुकेर सुनहि दान कर । यों सनि सुधर्म पटकर्म भनि, नरभौ लाहौ लेहु नर ।। दोहा येही छह विधि कर्म भज, सात निपुन तज वीर। इसही पैरे पहुंचि है, क्रप क्रप भवजल तीर । १ पापरूपी अंधेरेको मिटानेके लिये स्वाध्याय मादित्य (सूर्य) के समान है ।२ संधाररूपी तापको हरनेके लिये तप सोम (चंद्रमा) के समान है। ३ भगवानको नित्य पूषा करना मंगलदायनी है। ४ हे पंडित वन । ५शुक्रवार अथवा भच्छे हायसे । ६ सुपात्रको । ७ सनिबार भथवा धर्ममें सनिकर अर्थात् मग्न होकर । ८ इसी मार्गमे ।'
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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