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________________ १२० जैनपालवोधकफलका लगना नहिं हो सकता। भावार्थ-सम्यग्दर्शन के विना ज्ञान तो मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र कहलाता है॥ २९॥ मोही निर्मोहीका अंतर। मोहरहित जो है गृहस्थ मो, मोक्षमार्ग अनुगापी है । हो अनगार न मोह तजा तो,वह कुपंथका गामी है ।। मुनि होकर भी मोह न छोडा, ऐसे मुनिसे तो प्रियवर । निर्मोही हो गृहस्थ रहना, हे अच्छा उत्तम वहतर ॥३०॥ निर्मोही ( सम्पहष्टि) गृहस्य मोक्षमार्गी है किंतु मोह. चान् मुनि नहीं। इसकारण मोहवान मुनिकी अपेक्षा नि. मोही सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ है ।। ३० ॥ भूत भविष्यत वर्चमान ये; कहलाते हैं तीनों काल । देव नारकी और मनुज ये, तीनों जग हैं महाविशाल ॥ तीनोंकाल त्रिजगमें नहिं है, सुखकारी सम्यक्त्वसमान त्यों ही नहि मिथ्यात्व सदृश है, दुखदायक लीजे सच मान । तीनों काल (भूत भविष्यत् वर्तमान) और तीनों लोकों (अ मध्य पातालमें ) सम्यग्दर्शनकी समान तो कोई जीवोंका हितकारी नहीं और मिथ्यात्वकी समान कोई अहितकारी नहीं॥३१॥ मित्रो जो सम्यग्दर्शनसे, शुद्धदृष्टि हो जाते हैं। नारक.तिर्यक, पंढ स्त्रीपन, कभी नहीं वे पाते हैं ।
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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