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________________ ७८] जैन अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास अगीकार की थी। अभयकुमार, ' मेघकुमार आदि अनेक राजकुमारो ने भी घर छोडकर व्रतो को अगीकार किया था। स्कधक प्रमुख अनेक तापस भी तप का रहस्य जानकर भगवान् के शिष्य बन गए थे । अनेक स्त्रियाँ भी ससार की असारता को जानकर उनके श्रमणीसघ मे सम्मिलित हुई थी, जिनमे अनेक तो राजपुत्रियाँ भी थी। उनके गृहस्थ अनुयायियो में मगधराज श्रेणिक, कुणिक, वैशालीपति चेटक,५ अवन्तिपति चण्डप्रद्योत, आदि प्रमुख थे। आनन्द आदि वैश्य श्रमणोपासको के अतिरिक्त शकडाल पुत्र जैसे कुम्भकार भी उपासक सघ मे सम्मिलित थे। अर्जुनमाली जैसे दुष्ट से दुष्ट हत्यारे भी उनके पास वैर त्याग कर, शांति रस का पान कर तथा क्षमा को धारण कर दीक्षित हुए थे। शूद्रो और अतिशूद्रो' को भी उनके सघ मे स्थान था । उनका सघ राढादेश, मगध, विदेह, कागी, कोशल, सूरसेन, वत्स, अवन्ती, आदि देशो मे फैला हुआ था। उनके विहार के मुख्य क्षेत्र मगध, विदेह, काशी, कोगल, राढादेश, और वत्स थे।५० गण तथा गणधर महावीर ने अपनी श्रमण-सस्था को व्यवस्थासौकर्य की दृष्टि से गणो मे विभक्त कर दिया था, और इनके नियमन के लिए ११ प्रधान शिष्यो को नियत किया था, जो "गणधर' नाम से प्रसिद्ध थे। गणधरो के जीवन आदि का सक्षिप्त वृत्तान्त हमे कल्पसूत्र, आवश्यक १ आवश्यक चूणि, पृ० ११५. २ नायाधम्मकहाओ, १. ३ उत्तराध्ययन, २० ४ औपपातिक सूत्र, १२ आवश्यक चूणि, २, पृ० १६४. ६ वही, पृ० ४०१ उवासगदसाओ, १. ८ वही, ७ उत्तराध्ययन, १२. १०. भगवान महावीर, पृ० ८.
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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