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________________ द्वितीय अन्याय : आदर्श महापुरुष [६३ खोल दिया था। उनका कहना था कि श्रेष्ठता का आधार जन्म नहीं, बल्कि गुण है। वस्तुत: वर्ण-व्यवस्था जन्मगत नहीं, किन्तु कर्मगत है। कर्मो से ही ब्राह्मण होता है, कर्मों से ही क्षत्रिय होता है, कर्मों से ही वैश्य होता है तथा कर्मो से ही शूद्र होता है। २ उन्होने पुरुपों की तरह स्त्रियो के विकास के लिए भी पूर्ण स्वतत्रता दी और विद्या तथा आचार दोनो मे स्त्रियो की पूर्ण श्रेष्ठ योग्यता को स्वीकार किया। उनके लिए गुरुपद का भी आध्यात्मिक अधिकार उन्होने दिया । ३ उन्होने लोकभाषा मे 'तत्त्वज्ञान और आचार का उपदेश करके केवल विद्वद्गम्य सस्कृत भापा का मोह घटाया और योग्य अधिकारो के लिए जान प्राप्ति में भापा का विघ्न दूर किया। ४ उन्होने ऐहिक और पारलौकिक सुख के लिए होने वाले यज आदि कर्म-काण्डो की अपेक्षा सयम तथा तपस्या के स्वावलवी तथा पुरुपार्थप्रधान मार्ग की महत्ता की स्थापना की और अहिसा धर्म मे जनसाधारण की प्रीति उत्पन्न की।" ५. उन्होने त्याग और तपस्या के नाम पर रूढ शिथिलाचार के स्थान पर सच्चे त्याग और सच्ची तपस्या की प्रतिष्ठा करके भोग के स्थान पर विराग के महत्त्व का वायुमडल चारो ओर उत्पन्न किया। १. उत्तराध्ययन, १२ १ (चाण्डाल कुल मे उत्पन्न किन्तु उत्तम गुणी हरिकेशवल नामक एक जितेन्द्रिय भिक्षु हो गए है।) २ वही २५ ३३ ३ नायाधम्मकहाओ, २ १ पृ० २२२ (श्रमणोपासिका काली ने आर्यिका पुष्पचूला के निकट पार्श्व के श्रमणधर्म को स्वीकार किया ।) ४ समवायाग सूत्र, ३४ (भगवान् अर्द्धमागधी भापा मे धर्म का व्याख्यान करते है।) ५. उत्तराध्ययन, २५. “यज्ञीय"
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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