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________________ ४६ ] जैन अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास ३ पूर्व श्रुत में जिस-जिस देश काल का एव जिन-जिन व्यक्तियों के जीवन का प्रतिविम्व था उसमे आचारांग आदि अगो से भिन्न देश-काल एव भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के जीवन का प्रतिविम्ब पडा, यह स्वाभाविक है, फिर भी आचार एव तत्त्वज्ञान के मुख्य प्रश्नों के स्वरूप मे दोनों मे कोई विशेष अंतर नही पडा । ४ भगवान् महावीर जन्मकालीन परिस्थिति : आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व महावीर के जन्म से पहिले, भारत की सामाजिक, धार्मिक और राजनेतिक स्थिति ऐसी थी, जो कि एक विशिष्ट आदर्श की अपेक्षा रखती थी । देश मे ऐसे अनेक मठ थे जहाँ रहकर साधु लोग विभिन्न प्रकार की तामसिक तपस्याएँ किया करते थे । अनेक ऐसे आश्रम थे जहाँ मायावी मनुष्य के समान ममत्व रखने वाले वडे-बडे धर्मगुरु रहते थे। कितनी ही सस्थाएँ ऐसी थीं जहाँ विद्या की अपेक्षा कर्मकाण्ड की, विशेषकर यज्ञ की प्रधानता थी और उन यज्ञो मे पशुओ का वलिदान धर्म माना जाता था ।' समाज २ एक ऐसा वडा दल था, जो पूर्वज के परिश्रमपूर्वक उपार्जित गुरुपद को अपने जन्म सिद्ध अधिकार के रूप मे स्थापित करता था । उस वर्ग मे उच्चता की और विद्या की ऐसी कृत्रिम अस्मिता रूढ हो गई थी कि जिसके कारण वह अन्य कितने ही लोगो को अपवित्र मानकर अपने से नीच और घृणा योग्य समझता, उनकी छाया के स्पर्श तक को पाप मानता, तथा ग्रन्थो के अर्थहीन पठनमात्र में पाण्डित्य मानकर दूसरो पर अपनी गुरुसत्ता चलाता । गास्त्र और उसकी व्याख्याएँ विद्वद्गम्य भाषा मे होती थी, इससे जनसाधारण उस समय उन शास्त्रो से यथेष्ट लाभ उठा न पाता था । स्त्रियो, शूद्रो और विशेषकर अति शूद्रो को किसी भी वात से आगे वढने का पूरा अवसर नही मिलता था। उनकी आध्यात्मिक महत्त्वाकाक्षाओ के जागृत होने का अथवा जागृत होने के वाद उनके पुष्ट रखने का १ २ शतपथ ब्राह्मण, का० ३, अ० ७, ८, है वही, का० ३, अ० १, ब्रा०
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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