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________________ २६ ] जैन अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास यह ऋषभावतार रजोगुण से व्याप्त मनुष्यों को मोक्षमार्ग सिखलाने के लिए हुआ।"१ श्रीमद्भागवत के उक्त कथन में से यदि उस अंग को निकाल दिया जाए, जो कि धार्मिक विरोध के कारण लिखा गया है तो उससे वरावर यह ध्वनित होता है कि ऋपभदेव ने ही जैन-धर्म का उपदेश दिया था। क्योकि जैन तीर्थकर ही केवल-जान को प्राप्त कर लेने पर "जिन", "अहत" आदि नामो से पुकारे जाते है और उसी अवस्था मे वे धर्मोपदेश करते है जो कि उनकी उस अवस्था के नाम पर जैनधर्म या आर्हत-धर्म कहलाता है। श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव के द्वारा उनके पुत्रो को जो उपदेश दिया गया है वह भी वहुत अगो मे जैन धर्म के अनुकूल ही है, उसका सार निम्न प्रकार है : १ हे पुत्रो ! मनुष्यलोक मे शरीरधारियो के बीच मे यह गरीर कष्टदायक है, भोगने योग्य नही है। अत. दिव्य तप करो, जिससे अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। २ जो कोई मेरे से प्रीति करता है, विषयी जनो से, स्त्री से, पुत्र से और मित्र से प्रीति नही करता, तथा लोक मे प्रयोजन मात्र आसक्ति करता है वह समदर्गी, प्रशान्त और साधु है ।। ___३ जो इन्द्रियो की तृप्ति के लिए परिश्रम करता है, उसे हम अच्छा नहीं मानते, क्योकि यह गरीर भी आत्मा को क्लेशदायी है। ४ जब तक साधु आत्मतत्त्व को नही जानता, तब तक वह अज्ञानी है। जब तक यह जीव कर्मकाण्ड करता रहता है तब तक सव कर्मों का, शरीर और मन द्वारा आत्मा से वन्ध होता रहता है। ५ गुणो के अनुसार चेष्टा न होने से विद्वान् प्रमादी हो, अज्ञानी वनकर, मैथुन-सुख-प्रधान घर में वस कर अनेक सतापो को प्राप्त होता है। ६ पुरुप का स्त्री के प्रति जो कामभाव है, यही हृदय की ग्रन्थि है। इसी से जीव को घर, खेत, पुत्र, कुटुम्ब और धन से मोह होता है। १. श्रीमद्भागवत स्कन्ध ५, अध्याय ६
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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