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________________ २२] जैन अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास विद्याओ के साथ नागकुमार, सुवर्णकुमार आदि के दिव्य सवाद भी इस अग मे वर्णित है।' विपाकश्रुत-यह ११ वा अग है। इसमे शुभाशुभ कर्मों के फलविपाक कहे गये है । फलविपाक २० है-१० दुखविपाक तथा १० सुखविपाक । दुखविपाक मे दुख-विपाक के भोगने वाले पुस्पो के नगरोद्यानादि,इसलोक परलोक-ऋद्धि-विगेप, दुराचरण से नरकगमन ससार मे जन्म का विस्तार, दुख की परम्परा, पुन. हीन-कुल मे उत्पत्ति और सम्यक्त्व धर्म की दुर्लभता आदि का वर्णन है। सुखविपाक मे सुखविपाक को भोगने वाले पुरुपो के नगरादि, भोगो का परित्याग, प्रव्रज्या, तप-उपधान, सल्लेखना, आहारत्याग, देवलोक-गमन, सुख-परम्परा, पुन उत्तम कुल मे जन्म, सम्यक्त्व-लाभ तथा निर्वाण-प्राप्ति का वर्णन है। इसमे दो श्रुतस्कन्ध तथा वीस अध्ययन है। दृष्टिवाद-यद्यपि परम्परानुसार यह अग पूर्ण रूप से लुप्त हो गया है, फिर भी इसके वर्णनीय विषय आदि के सम्बन्ध मे समवायाग तथा नदीसूत्र में उल्लेख मिलते है। यह १२ वां अग है। दृप्टिवाद के ५ भेद किए गए है-१. परिकर्म, २ सूत्र, ३ पूर्वगत, ४ अनुयोग, तथा ५ चूलिका । दृष्टिवाद के इन भेदो के भी अनेक प्रभेद है। दृष्टि का अर्थ है-"दर्शन"। इस अग मे प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन तथा उपदर्शन का विशेप रूप से वर्णन है। इसमे एक श्रुतस्कन्ध तथा चौदह पूर्व है। १ समवायाग , १४५. तथा नदीसूत्र, ५४, २ वही, १४६ वही ५५ ३ वही, १४७ वही, ५६
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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