SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्याय अंगशास्त्र का परिचय [११ हुआ? किसने किया? कव किया? और कैसे किया ? इत्यादि दृष्टि से विचार करने पर आगमो की सादिता एव सान्तता भी सिद्ध होती है। इस प्रकार उभय दृष्टि से विचार करने पर जैन अग पौरुषेयता और अपौरुषेयता के सुन्दर समन्वय प्रतीत होते है। अंगशास्त्र का रचनाकाल अगशास्त्र की रचना के सम्बन्ध मे एक परम्परागत सिद्धान्त यह है कि ये सभी अग प्रथम तीर्थकर द्वारा ही रचे गए है, किन्तु आजकल वैज्ञानिक युग मे इस सिद्धान्त पर विश्वास नही किया जा सकता। अगशास्त्र गव्दवाच्य कोई एक ग्रन्थ नहीं है, किन्तु अनेककर्तृक अनेक ग्रन्थो का समुदाय है, अतएव अगशास्त्र की रचना का कोई एक काल भी निश्चित नही किया जा सकता। भगवान् महावीर का उपदेश ५०० विक्रम पूर्व मे प्रारम्भ हुआ, अतएव उपलब्ध किसी अगगास्त्र की रचना का उससे पहिले होना सम्भव नही है। और उसके दूसरी ओर अन्तिम वाचना के आधार पर पुस्तक-लेखन, वलभी मे विक्रम सवत् ५१० ( मतान्तर से ५२३ ) मे हुआ। अतएव तदन्तर्गत कोई गास्त्र विक्रम ५२५ के वाद का नही हो सकता । इस मर्यादा को ध्यान मे रखकर हमे सामान्यत अगगास्त्र की रचना के काल का विचार करना है।। अग ग्रन्थ गणधरकृत कहे जाते है, किन्तु उनमे सभी एक समान प्राचीन नही है। आचाराग के ही प्रथम और द्वितीय श्रतस्कन्ध भाव और भापा मे भिन्न है, यह कोई भी कह सकता है। प्रथम श्रुतस्कन्ध द्वितीय से ही नही, किन्तु समस्त जैन वाडमय मे सबसे प्राचीन अश है । उसमे परिवर्तन और परिवर्द्धन सर्वथा नही है, यह तो नहीं कहा जा सकता। किन्तु उसमे नवीन अग सवसे कम मिलाया गया है, यह तो निश्चयपूर्वक कहा ही जा सकता है। वह महावीर के साक्षात् उपदेश रूप न भी हो, तब भी उसके अत्यन्त निकट तो है ही। ऐसी स्थिति में उसे हम विक्रम-पूर्व ३०० से वाद की सकलना नही कह सकते । अधिक सभव यही है कि वह प्रथम वाचना की सकलना है। आचाराग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध आचार्य भद्रवाह के वाद की रचना होना चाहिए, क्योकि उसमे प्रथम श्रुतस्कन्ध की
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy