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________________ २४० ] जन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास तथागत बुद्ध के अनुसार यदि श्रद्धालु गृहस्थ मे सत्य, धर्म, धृति और त्याग ये चार गुण है तो वह इस लोक तथा परलोक मे शोक नहीं करता।' गौतमबुद्ध के पश्चात् कालान्तर में बौद्धसस्कृति की महायान शाखा प्रस्फुटित हुई। महायान के अनुसार गृहस्थ, जीवन के किसी क्षेत्र मे क्यो न हो; प्रवज्या लिए बिना ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है। चाहे वह व्यापारी, शिल्पी, राजा, दास या चाण्डाल ही क्यो न हो। ऐसे को निर्वाण-प्राप्त कराने के साधन, दया, मैत्रीभावना, उदारता, त्याग, गृहस्थ आत्मबलिदान, बुद्ध और बोधिसत्वो की भक्ति आदि है । 'वानप्रस्थ तथा सन्यास-वैदिक संस्कृति मे मनुष्य की उत्तर अवस्था मे वानप्रस्थ तथा सन्यास इन दो आश्रमों का अत्यधिक महत्व रहा है । प्रारभिक युग मे वानप्रस्थ तथा सन्यास, दोनो मुनिकोटि मे रखे जाते थे। सूत्रकाल से इन दोनो का भेद सुनिश्चित हुआ है। . वानप्रस्थ नाम से ही प्रतीत होता है कि इस आश्रम के सम्बन्ध में आरंभिक युग से ही घर छोड कर वन की शरण लेने का विधान रहा होगा । मुनि, अजिन वस्त्र धारण करते थे, सिर पर जटा रखते थे और उनके दात मैले होते थे। उनके मुख से कान्ति नही टपकती थी । वानप्रस्थ मुनि को कभी गॉव मे प्रवेश नही करना चाहिए। वह वन के फल और मूल से अथवा प्राप्त की गई भिक्षा से, आए हुए अतिथियों की पूजा करता था और भिक्ष ओं को भिक्षा देता था। नियम था कि वानप्रस्थ अपनी वाणी पर संयम रखे, किसी से स्पर्धा न करे, दूसरों के प्रति क्षमा तया मैत्री-भाव वढाए और सत्यपरायण वने । साधारणतः वानपस्थ मुनि केश, श्मश्र, वढाते थे। नित्य समाहित होना वानप्रस्थ के लिए आवश्यक था। वानप्रस्थवासी स्त्रियाँ भी वल्कल और अजिन धारण करती थी । गाधारी और कुन्ती ने वानप्रस्थ व्रत अपनाया था।" १ मुत्तनिपात, आडवकसुत्त । २. महायान सूत्रालकार, २, पृ० १६, तथा आगे । ३. सेतुकेतुजातक, १७७ । ४. आश्वमेधिक पर्व, ४६ वा अध्याय । ५ आश्रमवासिक पर्व, १६, १५, २६, १२, १३ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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