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________________ २३४ ] जैन-मंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास -खंधारमाण (नगर तथा स्कन्धावारो को नापने की विद्या), ५८. जुद्ध (युद्धविज्ञान), ५६. निजुद्ध (मल्लविज्ञान), ६० जुद्धातिजुद्ध (घोर युद्ध), ६१. दिट ठिजुद्ध (दृष्टियुद्ध), ६२. मुठिजुद्ध (मुष्टियुद्ध), ६३ बाहु युद्ध (वायुद्ध), ६४ लयायुद्ध (मल्लयुद्ध), ६५. ईसत्य (तीर विज्ञान), ६६ छरुप्पवाय (असिविज्ञान), ६७ धनुव्वेय (धनुर्वेद), ६८. वह (व्यूह (विज्ञान), ६९ पडिवूह (प्रतिव्यूह विज्ञान),७०. चक्कवृह(चक्रव्यूह विज्ञान), ७१ गरुलवूह (गरुडव्यूहविज्ञान), ७२. सगडवूह (कटव्यूहविनान)। शिक्षण विधि-वैदिक काल मे प्रारंभ से ही सूत्रो को कंठान करने की रीति थी। उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित की अभिव्यक्ति वाणी के साथ-साथ हाथ की गति से भी की जाती थी। वैदिक मंत्रो को कंठस्थ करने के लिए तथा उनके पाठ मे किसी प्रकार की त्रुटि न होने देने के लिए विविध प्रकार के पाठ होते थे। जैसे, संहितापाठ, पद-पाठ, क्रमपाठ, जटापाठ तथा धनपाठ । जैन-शिक्षणपद्धति का श्रेय महावीर को है। महावीर ने कहा था कि, "जैसे पक्षी अपने बच्चो को चुगादाना देते है, वैसे ही शिप्यो को नित्य दिन और रात शिक्षा गुरु को देनी चाहिए।"१ यदि शिष्य संक्षेप मे कुछ समझ नहीं पाता था तो आचार्य व्याख्या करके उसे समझाता था। आचार्य अर्थ का अनर्थ नहीं करते थे। वे अपने आचार्य से प्राप्त विद्या को यथावत् शिष्य को ग्रहण कराने मे अपनी सफलता मानते थे । वे व्याख्यान देते समय व्यर्थ की वाते नही करते थे। परवर्ती युग मे शास्त्रो के पाठ करने की रीति का प्रचलन हुआ। विद्यार्थी शास्त्रो का पाठ करते समय शिक्षक से पूछ कर सूत्रो का ठीक-ठीक अर्थ समझ लेता था और इस प्रकार अपना संदेह दूर करता था । विद्यार्थी बार-बार आवृत्ति करके अपने पाठ को कंठस्थ कर लेता था। फिर वह पढे हुए पाठ का मनन और चितन करता था। प्रश्न पूछने से पहिले विद्यार्थी आचार्य को हाथ जोड लेता था।" १. आचाराग, १, ६, ३, ३ । २ सूत्रकृताग, १, १४, २४-२७ । ३ उत्तराध्ययन, २६, १८, तथा १, १३ । ४ वही १, २२ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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