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________________ २३२ ] जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास तथा ६ जोइस (ज्योतिप्) । छह उपागों में प्राय बेदांगों में वणिन विपयो का और अधिक विस्तारपूर्वक वर्णन था। ___ इस प्रकार हम देखते है कि जन-संस्कृति में भी वेद का अध्ययन प्रारम्भ काल मे होता रहा है। स्थानांग मे भी ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद का उल्लेख है ।' उत्तराध्ययन टीका मे निम्नप्रकार १४ विद्यास्थान (अध्ययन के विपय) वताए गए हैं-चार वेद; छह वेदांग, मीमांसा, नाय (न्याय) पुराण तथा धम्मसत्थ (धर्मशास्त्र) । स्थानागमूत्र में नव प्रकार के पापच तो का वर्णन है: १ उप्पाय (अपशकुन-विज्ञान) २ निमित्त (शकुन-विज्ञान) ३. मन्त (उच्च-इन्द्रजाल विद्या) ४. आइक्खिय (नीच-इन्द्रजाल विद्या) ५ तेगिच्छिय (चिकित्सा-विज्ञान) ६. कला (कला-विज्ञान) ७ आवरण (गृह-निर्माण-विज्ञान) ८. अण्णारण (साहित्य-विज्ञान, काव्य नाटकादि) ६ मिच्छापवयण (असत्य-शास्त्र) अंगशास्त्र मे ७२ कलाओ का वर्णन मिलता है। यद्यपि सभी छात्र इन समस्त कलाओ मे निपुणता प्राप्त नहीं करते थे, फिर भी अपनी १ स्थानांग, ३, ३, १८५, “जैन परम्परा के अनुसार वेद दो प्रकार के है-आर्यवेद तथा अनार्यवेद । आर्यवेदो की रचना भरत तथा अन्य आचार्यों ने की थी। इनमे तीर्थकरो के यशोगान तथा श्रमण एवं उपासको के कर्तव्यों का वर्णन था । वाद मे सुलसा, याज्ञवल्क्य आदि ने अनायवेदो की रचना की।" आवश्यकचूणि २१५ । उत्तराध्ययन टोका, ३, पृ० ५६ (अ)। स्थानांग, ६, ६७८ । नायावम्मकहामो, १, २०, पृ० २१ । - र
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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