SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ ] जैन- अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास उस दशा मे अपने को दास मान कर दुखी होता है । कदाचित् आचार्य कुद्ध हो जाय तो शिष्य अपने प्रेम से उन्हे प्रसन्न करे, हाथ जोड कर उनकी विनय करे तथा उनको विश्वास दिलाए कि वह भविष्य मे वैसा अपराध कभी नही करेगा ।' बौद्ध संस्कृति मे विद्यार्थी का सदाचारी होना आवश्यक गुण माना जाता था । तत्कालीन आचार्यो का विश्वास था कि दुष्ट स्वभाव का शिष्य बडे जूते के समान है, जो खरीदे जाने पर भी पैर को काटता है । दुष्ट शिष्य आचार्य से जो ज्ञान ग्रहण करता है, उसी से उनकी जड़ काटता है ।" भिक्षुओ को उच्चत्तर शिक्षण देने के लिए जो " उपसम्पदा " सस्कार होता था उसके पहिले ही सघ के सभी सदस्यों का मत लिया जाता था । यदि संघ पक्ष मे नही होता था, तो उस भिक्षु की उपसंपदा नही हो सकती थी । तथागत बुद्ध ने नियम बनाया था कि ढोगी, ढीठ, मायावी या गृहस्थो की निन्दा करने वाले भिक्षु ओ के लिए संघ में स्थान नही है । गौतम ने आदेश दिया कि गृहासक्त, पापेच्छु, पापसंकल्पी भिक्षु को बाहर निकाल दिया जाय 13 संघ में प्रवेश करने वाले भिक्षुओं को छूत रोग से मुक्त होना, ऋणभार से मुक्त होना, राजा की सेवा में न होना, माता-पिता की स्वीकृति लेना, अवस्था में कम से कम २० वर्ष होना आदि आवश्यक गुण थे । ४ शूद्रो का विद्याधिकार - वैदिक काल मे आर्येतर जातियों के द्वारा आर्य भाषा और संस्कृति मे निष्णान्त हो कर वैदिक मंत्रो की रचना करने का उल्लेख मिलता है शूद्रो के लिए वैदिक शिक्षा पर रोक प्रधानत. स्मृतिकाल मे लगी । उनके लिए सदा से ही पुराणों के अध्ययन की सुविधा थी । आश्वलायन गृह्यसूत्र मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारो जातियो के "समावर्तन” संस्कार के विधान दिए गए है ।" जातककाल में ऐसे अनेक शूद्र और चाण्डाल हो चुके है, जो उच्चकोटि के दार्शनिक तथा उत्तराध्ययन, १, ३७-४१ । उपानहजातक, २३१ । १ २ ३. चुल्लवग्ग, ६, १, ४ । ४. चुल्लवग्ग, १०, १७, २ । ५. आश्वलायन गृह्यसूत्र, ३, ८ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy