SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ ] जैन-अंगशारत्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास काल मे थी। और अव भी वौद्धधर्म के नाम से एक शाखा जीवित है। अतः हम साधारणत श्रमण-संस्कृति को दो भागो मे विभाजित कर सकते है-१. जैन-संस्कृति, और २ वाद्यसंस्कृति । जैन-संस्कृति-जिस संस्कृति को हम जन-सस्कृति के नाम से पहिचानते है, उस के सर्वप्रथम आविर्भावक कौन थे, और उनसे वह पहलेपहल किस रूप से उद्गत हुई ? इसका पूरा-पूरा सही वर्णन करना इतिहास की सीमा के बाहर है। फिर भी आजकल जो शोध हुई है उसके आधार पर हम कह सकते है कि जैन-संस्कृति के प्रथम प्रणेता भगवान् ऋपम तथा अतिम उद्धारक महावीर थे। इस सस्कृति के सर्वमान्य पुल्प "जिन" कहलाते है । "जिन" का अर्थ है-वे पुरुप, जिन्होंने चार कों पर विजय प्राप्त करके संसार की समस्त वस्तुबो को एक साथ जानने वाला केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है। अतः "जिन" के नाम पर इस संस्कृति का नाम जैन-सस्कृति है। बौद्ध-सस्कृति-महात्मा गौतम बुद्ध महावीर के समकालीन थे। वे वौद्ध-परम्परा के प्रवर्तक माने जाते हैं । इस धर्म की नीव आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व पडी थी। वुद्ध ने तत्कालीन परिस्थितियो से ऊब कर स्वतंत्र रूप से सोच-विचार करना प्रारभ किया। उन्होने बोधि-वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न हो कर निश्चित किया कि तप और यजो से मनुप्य मुक्ति नही पा सकता, उसे मुक्ति पाने के लिए जीवन को शुद्ध वनाना और अपनी इच्छाओं का निरोध करना होगा। महात्मा बुद्ध ने दुख के पूर्ण विनाश के लिए आष्टांगिक मार्ग बतलाया है, जिनमे दृष्टि, सकल्प, वचन, कर्म, जीविका, प्रयत्न, स्मृति तथा समाधि की शुद्धि पर बल दिया गया है।४ वुद्ध ने अपने उपदेश उस समय की लोकभापा "पाली" मे दिये, जिनका संग्रह "त्रिपिटक" के नाम से विख्यात है। महात्मा बुद्ध के नाम पर इस संस्कृति का नाम बौद्ध-संस्कृति पडा। १. भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ० ४५। २. कल्पसूत्र, ५, १२१, पृ० २६४ । ३ भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ० ४० । ४. दीर्घनिकाय, २, ९। ५. संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृ० ३४६ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy