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________________ २१२ ] जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास अप्रमत्त नही हो सकेगा। संसार मे कामनाओ का पार नहीं है। कामनाओ को पूर्ण करने की इच्छा, चलनी में पानी भरने के समान व्यर्थ है। कामनाओ को पूर्ण करने के लिए दूसरे प्राणियो का वध आदि करना पड़ता है। मनुष्य इन वासनाओ के कारण ही वार-बार गर्भ (जन्म) प्राप्त करते है । भोग से तृष्णा कभी शांत नही होती; ऐसा समझ कर भिक्ष को इनकी इच्छा छोड़ देनी चाहिए। अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त करने के लिए श्रमण एक ओर तो सांसारिक विपय-सुखो से दूर रहने का चिन्तन करता रहता है और दूसरी ओर वह हमेशा शरीर से नि स्पृहता की भावना जागृत करता है । संसार अनित्य एव अशरण है-श्रमण इस वात का सदैव ध्यान करता है कि ससार क्षणभंगुर एवं हेय है। "मनुष्य का जीवन अत्यल्प है और इसे ससार मे कही भी शरण नहीं है। जब मनुष्य मृत्यु से घिर जाता है, आँख कान आदि इन्द्रियो की शक्ति कम हो जाती है, वृद्धावस्था आ जाती है, जीवन और जवानी पानी की तरह बहने लगता है, तब कुटुम्बीजन उसका तिरस्कार करने लगते है । उस समय मातापिता तथा प्रियजन कोई भी उसे मृत्यु के मुख से नही बचा सकते।' यही सोच कर महावीर ने कहा था कि, "हे धीर पुरुष, तू संसारवृक्ष के मूल और डालियो को तोड़ फैक । इस संसार का वास्तविक (अनित्यरूप) स्वरूप समझ कर आत्मदर्शी बन ।"४ शरीर अपवित्र एवं उपेक्षणीय है-संसार के प्रति विरागता को दृढ़ करने के लिए श्रमण शरीर की अशुचितारूप वास्तविकता पर भी विचार करता है ।" यह शरीर जैसा (अपवित्र) भीतर है, वैसा ही वाहर है और जैसा बाहर है, वैसा ही भीतर है । पंडित मनुष्य, शरीर १. आचारांग (हि०) १, ३, १०८, १०६, पृ० २० । आचाराग (हि०), १, २, ८४, ८५, । वही १, २, ६३, ६५, पृ० ११ । ४. वही १, ३, १११ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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