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________________ २०८ ] जैन-अंगशारत्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास ४. भिक्षु जिसके यहाँ ठहरे, उसके मकान मे पत्थर या लकड़ी की पट्टी पड़ी मिल जाए तो उस पर सो जाय ; अन्यथा उकड़ या पल्हथी आदि मार कर बैठा रहे और सम्पूर्ण गत्रि व्यतीत कर दे। ___ शय्यासंस्तारक (विछौने) के लिए स्थान देखते समय साधु को नाचार्य, उपाध्याय आदि तथा वालक, रोगी या अतिथि सावु आदि के लिए स्थान छोड देना चाहिए। सोने के पहिले निक्षु को मलमूत्र त्यागने के स्थान की अच्छी तरह देखभाल कर लेनी चाहिए। भिक्षु को आवश्यक है कि विछाने की वस्तुओ को काम मे लेने के बाद वह उन वस्तुओं को सावधानी के साथ गृहस्थ को लीटा दे।' वस्त्र-भिक्षु या भिक्षुणी को वस्त्र की आवश्यकता पड़ने पर वह ऊन, रेशम, सन, ताडपत्र, कपास या रेशे के बने हुए वस्त्र की याचना करे। जो भिक्षु बलवान तथा निरोग हो उसे एक ही वस्त्र ग्रहण करना चाहिए । भिक्षुणी चार वस्त्र ग्रहण कर सकती है-एक दो हाथ का, दो तीन हाथ के और एक चार हाथ का । इतनी लम्वाई वाले वस्त्र न मिले तो जोड कर बना लेना चाहिए। ____ जो वस्त्र भिक्षु के निमित्त तैयार किया गया हो, खरीदा गया हो, अथवा माँगा गया हो उसे भिक्षु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। गृहस्थ जिस वस्त्र को पहन चुका हो, जो वस्त्र फेक देने लायक हो अथवा जिसे कोई याचक भी स्वीकार न करे, ऐसा वस्त्र साधु को ग्रहण करना चाहिए। पात्र-भिक्षु को यदि पात्र की आवश्यकता हो तो वह तूवा, लकडी, मिटटी या इसी प्रकार का कोई पात्र मांगे । वलवान तथा निरोग भिक्षु एक ही पात्र ग्रहण करे। जो पात्र गृहस्थ काम मे ले चुका हो अथवा जो फेक देने लायक हो, जिसे कोई याचक भी स्वीकार न करे ; ऐसा पात्र साधु को ग्रहण करना चाहिए। आचाराग, २, २, १०५-१०७ पृ० ६१, ६२ हि०) वही २, ५१४१-१४३, पृ० ६०५ , वही २, ५, १४५ पृ० १०६ , वही १, ६, १५२ पृ० १११ ॥ ३ ४
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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