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________________ २०६ ] जैन- अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास १ भिक्षु, अलिप्त तथा सूखे हाथ अथवा पात्र से दिये हुए निर्जीव अचित्त (प्रा) आहार को स्वयं मांग कर या दूसरों के देने पर ग्रहण करे । २ भिक्षु, लिप्त हाथ अथवा पात्र से दिए हुए अचित्त आहार को ही ले । ३. भिक्षु, शुद्ध तथा भरे हुए पात्र एवं हाथ से, हाथ मे अथवा पात्र में दिया हुआ आहार ग्रहण करे । ४ अचित्त पोहे, होले, धानी आदि जिसमे फेकने का कम और खाने का अधिक निकलता हो तथा जिससे दाता को भी वर्तन धोने आदि का पश्चात्कर्म न करना पड े हो, ऐसा ही आहार भिक्षु ग्रहण करे । ५ जो अचित्त भोजन गृहस्थ ने स्वयं अपने खाने के लिए कटोरी, थाली आदि में परोस कर रखा हो, भिक्षु उसे ग्रहण करे । ६ जिस निर्जीव भोजन को गृहस्थ ने अपने या दूसरे के लिए कडछी आदि से निकाला हो, उसी का साधु स्वयं माँग कर अथवा दूसरे के देने पर ले | ७ जो भोजन फैकने योग्य हो, जिसको कोई दूसरा मनुष्य या जानवर न लेना चाहे, उस प्रासुक भोजन को साधु ग्रहण करे । निवास, मलमूत्रप्रक्षेप तथा शय्या - जैनागमो मे साधुओ के निवास मलमूत्रप्रक्षेप तथा शय्या आदि के विषय मे अनेक प्रकार के नियम बतलाए गए है । निवास - भिक्षु को ऐसे आवास मे नही ठहरना चाहिए, जो उसके निमित्त से बनाया गया हो, माँगा गया हो अथवा खरीदा गया हो । ' स्त्री, पशु और नपुंसक का जहाँ रात्रिनिवास हो, या गृहस्थका जहाँ प्रतिदिन भोजनादि का आरम्भ - समारम्भ होता हो, ऐसे मकान या कक्ष मे उसे नही ठहरना चाहिए। उसे सराय, बगीचों के १. २. आचाराग ( हि०) २, २,६४, पृ० ८५ । २, २,६७, पृ० ८५, ८६ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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