SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पचम अध्याय उपासक-जीवन [ १७५ शिक्षा-व्रतरूप वारह प्रकार के गृहस्थ-धर्म को स्वीकार करता है; तव से उसका उपासकजीवन प्रारम्भ होता है। गृहस्थ-धर्म स्वीकार करने के बाद वह जीवन-भर के लिए स्थूल हिंसा, झूठ तथा चोरी का परित्याग कर देता है, अपनी स्त्री के अतिरिक्त अन्य स्त्रियो के साय मैथुनविधि के त्याग का तथा ग्राहीस्थिक वस्तुओ के संग्रह की कम से कम मात्रा का भी निश्चय कर लेता है। ___ वह प्रतिना करता है कि अपने जीवन मे सोना, चाँदी, खेत, बैलगाड़ी, नाव, वस्त्र, आभूपण आदि निश्चित मात्रा के अतिरिक्त अन्य सोना, चॉदी आदि को प्रयोग मे नही लाएगा। वह भोजनविधि का भी परिमारण करता है और निश्चय कर लेता है कि कुछ प्रकार के फल, मिष्टान्न, दाल, घृत, शाक, मधुर रस, दहीवड़ा, जल तथा ताम्बूल आदि का कुछ निश्चित मात्रा मे ही अपने जीवन मे सेवन करेगा। यहाँ तक कि तैलमर्दन, उवटन, स्नान, विलेपन, पुष्पधारण आदि के सम्बन्ध में भी वह अपनी आवश्यकताओ की अत्यल्प सीमा निश्चित कर लेता है। परिग्रह की सीमा कम हो जाने से मनुष्य अनेक प्रकार की संग्रहसम्वन्धी मानसिक चिन्ताओ से मुक्त हो जाता है और घर मे स्थित वस्तुओ मे ही उसे संतोष का अनुभव होने लगता है। उपासक की अहिंसा की भावना का क्षेत्र मनुप्यमात्र तक सीमित नहीं है। वह पशु-पक्षियो पर भी दया से परिपूर्ण होता है। वह जिन गाय, भैस आदि पशुओ का परिग्रह रखता है, उनको समय पर भोजनपानी देने का पूरा ध्यान रखता है और उन्हे किसी भी प्रकार का कप्ट नही होने देता, उन्हे मारता-पीटता नहीं और न ही उनके अगो को छेदता है। 'कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र होता है', उत्तराध्ययन २५, ३३ । उपासकदगांग, ४ । वही, ५। ४. उपासकदगाग, १, ६ पृ० १९ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy