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________________ पंचम अध्याय : उपासक-जीवन [ १४६. कर घर से सपर्क कम करने लिए "पौषधशाला" (उपासको के धर्मसाधन के स्थान) में चला जाता है। वहाँ पहुँच कर पौषधशाला को अच्छी तरह प्रमार्जन कर उच्चारप्रस्रवणभूमि (मलमूत्रप्रक्षेपभूमि) को अच्छी तरह देखभाल कर, दर्भ विछा कर, पोषध आदि उपासक की ग्यारह प्रतिमाओ का यथामार्ग तया ययातत्त्व पालन करने लगता है। पौषधशाला मे रह कर ग्यारह प्रतिमाओ के पालन को उपासक की द्वितीय अवस्था समझना चाहिए।' तृतीय अवस्था-ग्यारह प्रतिमाओ का निर्दोष पालन करते हुए उपासक का शरीर जव तप के द्वारा सूख कर लगभग हड्डियो का ढाँचा मात्र रह जाता है, तव वह सोचने लगता है कि जब तक उसमे उठने तथा कार्य करने की शक्ति, वल, वीर्य, पौरुष, श्रद्धा, वैराग्य आदि विद्यमान है, तव तक यह श्रेयस्कर होगा कि वह अन्न-पान का त्याग कर मृत्यु की आकांक्षारहित हो कर मारणातिक सल्लेखना (शातिपूर्वक मरण के प्रयत्न) को धारण करे । सल्लेखना-धारण के समय उपासक पूर्ण रूप से गृह एव परिग्रह से सम्बन्ध छोड़ देता है तथा क्रमश भोजन-पान भी अल्प करते हुए एकदिन सर्वथा छोड देता है और शान्तिपूर्वक आत्मध्यान करते हुए वह मृत्यु का आलिगन करता है ।२ परवर्ती आचार्यों ने उपासक-जीवन की इन्ही तीनो अवस्थाओ को ले कर उपासक के तीन भेद किए है-पाक्षिक, नैष्ठिक तथा साधक । __ पाक्षिक उपासक वह कहलाता है जो उपासक के बारह व्रतो का निर्दोष पालन करता है। नैप्टिक श्रावक वह है जो उपासक की ग्यारह प्रतिमाओ का निर्दोष पालन करता है तथा साधक वह है जो कि शान्ति पूर्वक आरम्भ-परिग्रह का त्याग कर निराकाक्ष हो कर मृत्यु का आलिगन करता है। __ श्रमण के प्रति भक्ति एवं सेवाभाव को ध्यान मे रखकर श्रमणोपासक के चार भेद किए है-१ अम्मापितिसमाणे (मातृपितृसमान), १. २. ३. उपासकदशाग, ६, १०, पृ० २४-२५ । वही, १,१५, पृ० ३३, "जैनधर्म", पृ० १८४-२०१ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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