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________________ पचम अध्याय : उपासक-जीवन [१४७ इस संसार में कोई अन्य वस्तु सहायक नही हो सकती । सासारिक भोगविलासो एवं कामनाओ को वह दुख का कारण मान कर हमेशा के लिए उनसे मुंह मोड़ लेता है । आत्म-ज्ञान कराने वाले श्रमण, निर्ग्रन्थ अथवा विद्वज्जनो के प्रति उसके हृदय मे एक अभूतपूर्व श्रद्धा एव स्नेह की भावना पैदा हो जाती है । वह उनकी भौतिक कमियो को देख कर उनसे किसी प्रकार की ग्लानि एवं सकोच नही करता।' आत्मधर्म मे उसे इतनी प्रगाढ़ श्रद्धा होती है कि वह अन्यधर्मावलम्बियो के साथ न तो अतिपरिचय ही स्थापित करना चाहता है और न ही उनके पाखण्डपूर्ण कार्यो की थोडी-सी भी सराहना । क्योकि इस प्रकार के कार्य उसे अपने धर्म से विचलित कर सकते है। - सम्यगज्ञान-जैनागमो मे अधिकतर श्रमणोपासक शब्द के साथ जीव अजीव का ज्ञाता' इस विशेपण का प्रयोग हुआ है। यह इस वात की ओर सकेत करता है कि उपासक के जीवन मे दर्शन के बाद और आचार से पहिले ज्ञान का होना अत्यधिक आवश्यक है। जीव तथा अजीव के वन्धन और मुक्ति को ले कर जैनागमों मे ६ पदार्थ वणित है।3 ज्यो ही उपासक को जीव-अजीव तत्त्व का वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो जाता है, त्यो ही वह नव पदार्थो का ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है । "कर्म आत्मा मे क्यो प्रवेश करते है ? (आस्रव), उनको कैसे रोका जा सकता है ? (सवर), उनके फल कैसे होते है और वे कैसे नष्ट हो सकते है ? (निर्जरा), क्रिया किसे कहते है, उसका अधिकरण क्या है, वन्ध और मोक्ष किसे कहते है ?-इन सब बातो का ज्ञान उपासक को होता है।"४ सम्यक्चारित्र-श्रद्धा एव ज्ञान से सम्पन्न उपासक जव आध्यात्मिक यात्रा मे अग्रसर होने के लिए चारित्र का अवलम्वन करता है तो वह चतुर्थ गुणस्थान से निकल कर देशवती श्रावक की पंचम भूमिका में आता है।" यह वह भूमिका है, जहाँ अहिसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य १ उपासकदगांग, १, ६, पृ० १०।। २ उपासकदशाग, १, ६, पृ० १०, तथा नायाधम्मकहाओ, १, ५, ६०, स्थानाग, ६६५। ४ जनसूत्राज् भाग २, (सूत्रकृताग, २, २, ७५----७७) ५. चौदह गुणस्थानो मे पाँचवा गुणस्थान विरताविरत है समवायाग, १४
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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