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________________ चतुर्थ अध्याय मानव-व्यक्तित्व का विकास [ १४१ परमात्मा, जीवन्मुक्त', अरिहत आदि नामो से पुकारे जाते है। जैन तीर्थकर इसी अवस्था को प्राप्त करके जैनधर्म का प्रवर्तन करते है और जगह जगह घूम कर प्राणि-मात्र को उनके हित का मार्ग बतलाते है तथा इसी कार्य में अपने जीवन के शेष दिन व्यतीत करते है। जब आयु अन्तमुहूर्त (एक मुहूर्त से कम) रह जाती है तो वे सब व्यापार बन्द करके ध्यानस्थ हो जाते है । जव तक केवली के मन, वचन और काया का व्यापार रहता है। तब तक वे सयोगकेवली कहलाते है । (१४) अयोगकेवली-जव केवली ध्यानस्थ हो कर मन, वचन और काय का सब व्यापार बंद कर देते है। तव उन्हे अयोगकेवली कहते है। ये अयोगकेवली वाकी बचे हुए चार अघातिया कर्मों को भी नाश करके, ध्यानरूप अग्नि के द्वारा समस्त कर्म भस्म करके कर्म और शरीर के बन्धन से छूट कर मोक्षलाभ करते है। "वेदान्त मे भी इसी प्रकार की जीवन्मुक्त अवस्था मानी गई है।" वेदान्त सार, पृ० १४ । सूत्रकृताग १४, (सूत्रवृत्ति अभयदेव, पृ० २६, २७) तथा "जैनधर्म" पृ० २२० ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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