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________________ १३६ ] जैन- अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास अरिहंत आदि पाँचो पदो का मूल स्वरूप वीतराग - विज्ञानता है । यह वीतराग - विज्ञानता ही है, जो अरिहंत आदि को त्रिभुवन के पूज्य बनाती है । व्यक्तित्व विकास की विभिन्न अवस्थाएं (ब) अंग - शास्त्रो मे मानव-व्यक्तित्व के विकास की १४ अवस्थाओ का विवरण मिलता है । इन अवस्थाओ को गुणस्थान कहते है ।" गुण या स्वभाव (भाव) पाँच प्रकार के होते है । औदयिक, औपशमिक, क्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक, ये जीवो के पाँच भाव होते है। ये भाव क्रमश कर्म के उदय, उपशम ( शाति), क्षय, क्षयोपशम तथा उदयादि के विना केवल स्वभावमात्र की अपेक्षा से होते है | चूँकि जीव इन गुणो वाला होता है, इसलिए आत्मा को भी गुणनाम से कहा जाता है और उसके स्थान गुणस्थान कहे जाते है । ये चौदह गुणस्थान क्रमश. निम्न प्रकार है— ९. २. १ मिच्छादिट्ठी ( मिथ्यादृष्टि) २ सासायणसम्मदिट्ठी ( सासादन सम्यग्दृष्टि ) ३ सम्मामिच्छादिट्ठी ( सम्यक् मिथ्यादृष्टि ) ४ अविरयसम्मदिट्ठी ( अविरतसम्य गृहप्टि ) ५ विरयाविरए ( विरताविरत ) ६ पमत्तसंजए (प्रमत्तसयत ) ७ अप्पमत्तमजए (अप्रमत्तसंयत ) ८ नियट्टीवायरे (निवृत्तिवादर ) अनिय ट्टीवायरे ( अनिवृत्तिवादर ) १० सुहुमसपराए (सूक्ष्मसापराय ) ११ उवसामए, खवए, उवसतमोहे ( उपशातमोह) १२ खीणमोहे (क्षीणमोह) १३ सयोगी केवली ( सयोग केवली ) १४ अयोगी केवली ( अयोगकेवली ) वही सूत्र १४ स्थानागमूत्र ५३७
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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