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________________ १२० ] जैन- अंगणास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास अहिंसादि धर्म का पूर्ण पालन करने में असमर्थ रहता है तो भी वह मन से कभी भी किसी प्रकार की हिंसादि की भावना नही करता । " जैनागमों में उपासक के वारह व्रतो का वर्णन किया गया है । उनमे पाँच अणुव्रत होते है । अणु का अर्थ छोटा होता है, और व्रत का अर्थ प्रतिज्ञा है । साधुओ के महाव्रतो की अपेक्षा गृहस्थों के हिसा आदि के त्याग की प्रक्रिया मर्यादित होती है, अत: वह अणुव्रत है। सात शिक्षात्रत भी उन व्रतो के अंग है । शिक्षा का अर्थ शिक्षण, अभ्यास है । जिनके द्वारा धर्म की शिक्षा ली जाए, धर्म का अभ्यास किया जाए, वे प्रतिदिन अभ्यास करने योग्य नियम शिक्षाव्रत कहे जाते है | - उपासक अवस्था में मनुष्य के हृदय में धर्म के प्रति श्रद्धा निरन्तर दृढ से दृढतर होती रहती है । साधु-समागम तथा आगम-अभ्यास द्वारा वह अपने तात्त्विक ज्ञान को निरन्तर बढ़ाता रहता है, अन्त में एक दिन वह इस स्थिति पर पहुँच जाता है, जहां वह यह अनुभव करने लगता है कि गार्हस्थिक जीवन एक बन्धन है और वह उसे तोडने को उत्सुक हो जाता है | 3 साधक की वास्तविक साधना का प्रारम्भ यही से है । श्रमण - इन्द्रियो के विषयों के प्रति विरक्त, छह काय के जीवो की रक्षा मे सावधान, श्रद्धा एवं ज्ञान से परिपूर्ण व्यक्ति एक दिन इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि जब तक घर मे निवास है, तब तक निश्चय ही संयम का पूर्ण पालन नही हो सकता, क्योकि गृह निवास असंयम का प्रतीक है । अत आत्मा के विकास मे तत्पर व्यक्ति सुअवसर प्राप्त कर गृहत्याग करके अनगार- अवस्था को प्राप्त करता है । १ २. ३. ४. 'हिंसा' चार प्रकार की है - ( १ ) सकल्पी (इच्छापूर्वक), (२) आरम्भी (गृहकार्य के निमित्त), (३) उद्योगी (आजीविका के निमित्त ) (४) विरोधी (देश तथा आत्मरक्षा के निमित्त ) | गृहस्थ इनमे से केवल सकल्पी हिंसा का त्यागी होता है । - जैनधर्म, पृ० १८१ । उवासगदसाओ, १, ४, पृ० ४. " प्रमादी (असयमी ) पुरुष घर मे निवास करते है ।" वही, १, ११, ४४ । - आचाराग, १,१,४४
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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