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________________ चतुर्थ अध्याय . मानव-व्यक्तित्व का विकास इन विस्तृत लोक मे क्या कही कोई ऐसा भी स्थान है, जहाँ कि इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो ?" महावीर ने उत्तर दिया-"गौतम, अधिक तो क्या, एक परमाणु (पुद्गल) जितना भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो।" मनुष्य के हाथ-पैर पा लेने से ही कोई मनुष्य नही बन जाता। मनुप्य बनता है मनुष्य की आत्मा पाने से और वह आत्मा मिलती है धर्म के आचरण से । भोग, निरा भोग मनुष्य को राक्षस बनाता है, एकमात्र त्याग की भावना ही मनुष्य को मनुष्य बनाने की क्षमता रखती है। मोक्ष की प्राप्ति के चार दुर्लभ कारण बताते हुए भी भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन मे मनुष्यत्व को ही सवसे पहले गिनाया है। उन्होने बतलाया कि मनुष्यत्व, शास्त्र-श्रवण, श्रद्धा तथा सदाचार के पालन मे प्रयत्नशीलता, ये चार साधन जीव को प्राप्त होने अत्यन्त कठिन है।"२। मनुष्यता ही मनुप्य की सबसे बडी सम्पत्ति है। मनुष्य का व्यक्तिगत भोग-विलास की मनोवृत्ति से अलग रहना, त्याग-मार्ग अपनाना, धर्म और सदाचार के रंग में अपने को रंगना, जन्म-मरण के वधनो को तोड कर अजर-अमर पद पाने का प्रयत्न करना ही मनुष्यता की ओर अग्रसर होना है। मनुष्य-जीवन का ध्येय पूर्ण प्रकाश पाना है । वह प्रकाश, जिससे बढकर कोई दूसरा प्रकाश नहीं, वह ध्येय, जिससे बढकर कोई दूसरा ध्येय नहीं। व्यक्तित्व का विकास तथा उसके साधन . जैसा कि हम पहिले भी कह चुके है, प्राणी का मनुष्य-जीवन पा जाना ही उसकी विकासोन्मुखता का दर्शक है । केवल मनुष्य जीवन का पा जाना ही व्यक्ति के विकास के लिए पर्याप्त नहीं है, किन्तु विकास १. "धर्म को ज्ञानी पुरुषो के पास से समझ कर, स्वीकार कर ... परिग्रह का संग्रह न करे तथा प्राप्त भोग पदार्थों मे वैराग्य धारण कर लोक के प्रवाह के अनुसार चलना छोड दे।" --आचाराग, १, ४, १२७ । । २. उत्तराध्ययन, ३,१० -
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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