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________________ ε४ ] जैन - अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास प्रमाण के आभिनिवोधिक आदि पाँच भेदो का वर्णन ऊपर किया जा चुका है। नय के सात भेद है -- १ नैगम, २ संग्रह, ३ व्यवहार, ४ ऋजुसूत्र, ५ शव्द, ६ समभिरूढ़ तथा ७ एवभूत | नंगम नय - सकल्पमात्र को ग्रहण करने वाला नैगम नय होता है । जमे कोई पुरुष दरवाजा बनाने के लिए लकड़ी काटने जगल जा रहा है। पूछने पर वह कहता है कि "मैं दरवाजा लेने जा रहा हूँ ।" यहाँ दरवाजा बनाने के सकल्प मे ही "दरवाजा" व्यवहार किया गया है । सग्रह नय - अनेक पर्यायों को एक द्रव्य के रूप से या अनेक द्रव्यो को सादृव्यमूलक एकत्वरूप से अभेदग्राही संग्रह नय होता है | जैसे—''सपूर्ण जगत सद्रूप है", क्योकि सत्तारहित कोई वस्तु है ही नही । व्यवहार नय - संग्रह नय के द्वारा गृहीत अर्थ मे विधिपूर्वक, अविसवादी और वस्तुस्थितिमूलक भेद करने वाला व्यवहार नय है । यह नय लोक - प्रसिद्ध व्यवहार का अविरोधी है । जैसे - " सद्रूप वस्तु भी जड़-चेतन रूप से दो प्रकार की है । चेतन तत्त्व भी ससारी तथा मुक्तरूप से दो प्रकार का है ।" इत्यादि रूप से भेद करना । ऋजुसूत्र नय - अतीत चूँकि विनष्ट है और अनागत अनुत्पन्न है, अत वर्तमान क्षणवर्ती अर्थपर्याय को ही विषय करने वाला ऋजुसूत्र नय कहलाता है । इस नय की दृष्टि मे पलाल का वाह नही हो सकता, क्योकि अग्नि का सुलगाना, धोकना, जलाना आदि असख्य समय की क्रियाएँ वर्तमान क्षण मे नही हो सकती । शब्द नय--काल, कारक, लिंग तथा संख्या के भेद से शव्द भेद होने पर उनके भिन्न-भिन्न अर्थो को ग्रहण करने वाला शब्द नय है । जैसे भिन्न कारक तथा भिन्न वचनो मे कहा गया "देवदत्त" एक ही नही, किन्तु अनेक है । समभिरूढ़ नय - एक कालवाचक, एक- लिंगक तथा एक संख्याक भी शब्द अनेक पर्यायवाची होते हैं । यह नय उन प्रत्येक पर्यायवाची गव्दो का अर्थभेद मानता है । जैसे – इन्द्र, गक तथा पुरन्दरइन तीन शब्दो मे प्रवृत्ति निमित्त की भिन्नता होने से भिन्नार्थ वाचकता है ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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