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________________ तृतीय अध्याय : जैन-तत्त्वज्ञान [८६ १ सूक्ष्म अपर्याप्तक एकेन्द्रिय (सुहुमा अपज्जत्तया एगिदिया) २ सूक्ष्म पर्याप्तक एकेन्द्रिय (मुहुमा पज्जत्तया एगिदिया) ३ वादर अपर्याप्तक एकेन्द्रिय (वादरा अपज्जत्तया एगिदिया) ४ वादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय (वादरा पज्जत्तया एगिदिया) ५. अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय (अपज्जत्तया वेइदिया) ६ पर्याप्तक द्वीन्द्रिय (पज्जत्तया बेइदिया) ७ अपर्याप्तक त्रीन्द्रिय (अपज्जत्तया तेदिया) ८ पर्याप्तक त्रीन्द्रिय (पज्जत्तया तेदिया) ६ अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय (अपज्जत्तया चउरिदिया) १० पर्याप्तक चतुरिन्द्रिय (पज्जत्तया चउरिदिया) ११ असज्ञी अपर्याप्तक पचेन्द्रिय (असन्नि अपज्जत्तया पचिदिया) १२ असज्ञी पर्याप्तक पचेन्द्रिय (असन्नि पज्जत्तया पचिदिया) १३ सनी अपर्याप्तक पचेन्द्रिय (सन्नि अपज्जत्तया पचिदिया) १४. सज्ञी पर्याप्तक पचेन्द्रिय (मन्नि पज्जत्तया पचिदिया) यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि जैनदर्शन जीववहुत्ववादी है। वह प्रत्येक जीव की स्वतत्र सत्ता स्वीकार करता है। स्थानाग मे कहा गया है कि प्रत्येक गरीर के हिसाव से एक जोव है।' जीवो की भिन्न-भिन्न अवस्थाओ को देखकर साख्य ने भी 'पुरुप' तत्त्व की अनेकता को स्वीकार किया है। ___ शरीर-जीव के क्रिया करने के साधन को गरीर कहते है। ससारी जीवो के पाँच प्रकार के गरीर होते है-१ औदारिक, २ वैक्रिय, ३. आहारक, ४ तैजस, ५ काणि । ____जो गरीर उदार ( स्थूल ) हो, जो जलाया जा सके, जिसका छेदन-भेदन हो सके वह औदारिक गरीर कहलाता है। जो गरी कभी छोटा, कभी वडा, कभी पतला, कभी मोटा, कभी एक, कभी अनेक इत्यादि विविध प्रकार की विक्रिया कर सके वह वैक्रिय गरीर है । जो शरीर केवल किसी विशेप ऋद्धिधारी (चतुर्दशपूर्वी) मुनियो के द्वारा रचा जा सके, वह आहारक शरीर कहलाता है । जो शरीर तेजोमय होने के कारण ग्रहण किए हुए आहार आदि के परिपाक १ स्थानाग, १७, तथा ममवायाग, १ २ सास्यकारिका, १८ (पुरपवहुत्व सिद्धम्)
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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