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________________ तृतीय अध्याय : जैन-तत्त्वज्ञान [८५ __पदार्थ-व्यवस्था की दृष्टि से यह विश्व द्रव्यमय है, किन्तु मुमुक्षु पुरुष के लिए, जिनको तत्त्वज्ञान की आवश्यकता मुक्ति के लिए है, वे पदार्थ माने गए है । जिस प्रकार रोगी को रोग-मुक्ति के लिए रोग, रोग का कारण, रोग-मुक्ति और रोग-मुक्ति का उपाय-इन चार वातो का जानना चिकित्सा-शास्त्र मे आवश्यक बताया गया है, उसी प्रकार मोक्ष प्राप्ति के लिए ससार, ससार के कारण, मोक्ष और मोक्ष का उपाय-इस मूलभूत चतुव्यूह का जानना परमावश्यक है। जीव तथा अजीव ये दो पदार्थ मिलकर ही ससार कहे जाते है।' चेतना लक्षण जीव है और इसके विपरीत अजीव है । पुण्य, पाप तथा आस्रव, बध-ये चार पदार्थ ससार के कारण है। मन, वचन तथा काय की शुभ प्रवृत्ति पुण्य और अशुभ प्रवृत्ति पाप कहलाती है। पाप को तरह पुण्य भी ससार का कारण है क्योकि प्रवृत्ति मात्र, चाहे शुभ-रूप हो चाहे अशुभ-रूप, कर्मागमन मे कारण होती है । मुक्ति के लिए तो प्रवृत्ति-निरोध ही आवश्यक है। पुण्य तथा पाप के द्वारा कर्मरूप पुद्गल परमाणुओ का आत्मा के समीप आगमन होता है, वही आस्रव कहलाता है । आस्रव कर्मागमन का द्वार है । जीव और कर्म का परस्पर मे सग्लिष्ट हो जाना बध है । जीव का समस्त कर्मवन्धनो से मुक्त हो जाना मोक्ष है । सवर तथा निर्जरा, ये दो पदार्थ मोक्ष के कारण है । आस्रव के रोकने को सवर कहते है, सवर नवीन कर्मो के आगमन का द्वार बद कर देता है । बधे हुए कर्मो को तप के द्वारा नष्ट कर देना निर्जरा है।२ १. जीव-जैसा कि हम पहिले कह चुके है, इस ससार मे दो पदार्थ ही पूर्ण रूप से व्याप्त है, जीव तथा अजीव ।' इन दोनो पदार्थो से भिन्न ससार नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। नव पदार्थो मे ये दो १ समवायाग, १०३ २ वौद्ध-दर्शन मे जो दुख, समुदय, निरोध और मार्ग-चार आर्यसत्य हैं, (अभिधर्मकोप, ६, २) और सास्य तथा योगदर्शन मे हेय, हेय-हेतु, हान, और हानोपाय चर्तुव्यूह है जिसे न्याय दर्शन मे "अर्थपद' कहा गया है। इनके स्थान मे आस्रव से लेकर मोक्ष तक के पांच तत्त्व जैनदर्शन मे प्रसिद्ध हैं। -जैनदर्शन, पृ० २१४ स्थानाग,५७
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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