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________________ जानकारी आज हमें आगमों-धर्मशास्त्रों के द्वारा ही हो सकती है। जो पुरुष हमारे बीच आज नहीं है, उनसे हम जीवित और प्रत्यक्ष की तरह बातचीत कर सकें, इसके लिए आगम ही सर्वोत्तम माध्यम है । और जैनागमों जिनोंवीतरागपुरुषों द्वारा उपदिष्ट श्रुत, आगम ही सूक्त या शास्त्र कहलाते हैं, तथा वे अनुभवसिद्ध वचन किसी एक वर्ग या सम्प्रदायविशेष के प्रति पक्ष. पात से युक्त नहीं होते। आजकल के कई क्षुद्राशय लोग तर्कों और युक्तियों से उल्टी बातें भी साधारण लोगों के दिमाग में विठा कर गुमराह कर देते हैं। लेकिन जैन-आगम प्रज्ञा से धर्मतत्व की समीक्षा करने का स्पष्ट उद्घोष करते हैं। आगम की व्याख्या आगम का वास्तविक अर्थ ही यह है-'मा समन्तात् गम्यते ज्ञायते जीवन- . जगत् तत्त्वार्थो येनाऽसो आगमः" जिससे जीवन और जगत् के तत्त्वों के समीचीन अर्थ का ज्ञान हो, हेय-ज्ञय-उपादेय का भलीभांति बोध हो उसे आगम कहते हैं। आगमवचन प्रमाणभूत और साक्षीरूप वहुत-सी बातें हम इन्द्रियों और मन से भी जान नहीं सकते; अनुभव भी कई दफा देशकाल और परिस्थिति की छाप से प्रभावित होता है । ऐसी स्थिति . में आगम ही एकमात्र साक्षी व प्रमाणभूत होता है, जिसके जरिये व्यक्ति यथार्थ निर्णय प्राप्त कर सकता है । इसीलिए भगवद्गीता में कहा है 'तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ' - "कार्य और अकार्य की व्यवस्था सम्यग्ज्ञान में शास्त्र ही तुम्हारे लिए प्रमाण है।" वास्तव में आगम इन्द्रियज्ञान, मनोज्ञान, परिस्थिति या किसी पक्ष आदि से प्रभावित नहीं होता; वह सर्वज्ञों द्वारा आत्मा से सीधे प्रत्यक्षीकृत ज्ञान से युक्त होता है। इसलिए आगमज्ञान ही जीवन और जगत की समस्त ग्रन्थियों को सुलझाने में सहायक होता है ।
SR No.010329
Book TitleJainagam Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhileshmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages383
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size11 MB
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