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________________ 'काव्यानुशासन' आठ अध्यायों में विभक्त है जिनमें काव्य के सभी मान्य तत्त्वों व भेद-प्रभेदों का विवेचन कर दिया गया है । मूलग्रंथ में तीन प्रकार के अंश हैं--सूत्र, वृत्ति और उदाहरण । सूत्रों की कुल संख्या २०८ है जिनका अध्यायवार वितरण इस प्रकार है-प्रथम अध्याय में २५, द्वितीय में ५६, तृतीय में १०, चतुर्थ में ६, पंचम में ६, षष्ठ में ३१, सप्तम में ५२ और अष्टम में १३ । इन सूत्रों की व्याख्या 'अलंकारचूडामणि' नामक एक स्वोपज्ञ कृति में की गई है । वृत्ति में ही उदाहरण दिये गए हैं जिनकी संख्या ८०७ है। सूत्र व वृत्ति दोनों पर हेमचन्द्र ने 'विवेक' नाम की एक विस्तृत टीका भी प्रस्तुत की है। 'विवेक' म ग्रंथकार ने विषय के प्रौढ़ विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रतिपाद्य विषय से संबद्ध प्रभूत सामग्री अन्य ग्रंथों से संकलित की है। अन्य ग्रंथकारों के मत प्रायः मूल रूप में उद्धृत किये गए हैं। इसमें लगभग ८८५ उद्धरणों व उदाहरणों का समावेश है। वृत्ति व विवेक दोनों में मिलाकर हेमचन्द्र ने लगभव ५० ग्रंथकारों व ८१ ग्रंथों का नामतः उल्लेख किया है । अन्य बहुत से संदर्भ ग्रंथ या ग्रंथकार के नामोल्लेख के विना ही दिए गए हैं। अलंकारशास्त्र व साहित्य के इतिहास की दृष्टि से इस विपुल सामग्री का महत्त्व असंदिग्ध है। 'काव्यानुशासन' में प्रतिपादित विषयों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है--- प्रथम अध्याय-मंगलाचरण के पश्चात् हेमचन्द्र कहते हैं कि 'शब्दानुशासन' में हमने वाणी के साधुत्व का विवेचन किया और अब 'काव्यानुशासन' में उसी के काव्यत्व की उचित रीति से शिक्षा दी जा रही है ---- शब्दानुशासर्ने स्माभिः साध्व्यो वाचो विवेचिताः । तासामिदानी काव्यत्वं यथावदनुशिष्यते ॥१.२ तृतीय सत्र में काव्य के प्रयोजनों को निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया गया है.--- __ काव्यमानन्दाय यशसे कान्तातुल्यतयोपदेशाय च । १.३ अर्थात् काव्य का प्रयोजन आनन्द, यश और कान्ता के समान उपदेश प्रदान करना है। __ आचार्य हेमचन्द्र ने प्रतिभा को ही काव्य का एकमात्र हेतु स्वीकार किया है। उनके अनुसार व्युत्पत्ति व अभ्याम प्रतिभा के संस्कारक मात्र हैं, काव्य के साक्षात् कारण नहीं प्रतिभास्य हेतुः।...व्युत्पत्यभ्यासाभ्यां संस्कार्या । १.४,७ अतएव न तौ काव्यस्य साक्षात्कारणं प्रतिभोपकारिणौ तुभवतः। दृश्येते हि प्रतिभाहीनस्य विफलौ व्यत्पत्त्यभ्यासौ ।-१.७ की वृत्ति । हेमचन्द्र ने काव्य का निम्न लक्षण दिया है-- अदोषौ सगुणौ सालंकारी च शब्दार्थो काव्यम् । १.११ मम्मट के काव्यलक्षण से इसका भेद मुख्यतः 'सालंकारौ' पद से प्रकट हो रहा आचार्य हेमचन्द्र और उनके काव्यानुशासन : ७६
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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