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________________ स्थापित कर भारतीय समाज को सहयोग प्राप्त होता रहा है। निश्चित ही, यह देन महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है । जैन - आयुर्वेद ' प्राणावाय' जैन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित आयुर्वेद या चिकित्साशास्त्र को 'प्राणावाय' कहते हैं। जैन तीर्थंकरों की वाणी को विषयानुसार स्थूल रूप से बारह भागों में बांटा गया है, इन्हें जैन आगम में 'द्वादशांग' कहते हैं । इनमें अंतिम अंग 'दृष्टिवाद' कहलाता है । दृष्टिवाद के पांच भेद हैं- पूर्व मत, सूत्र, प्रथमानुयोग, परिकर्म और चूलिका | पूर्व के पुनः चौदह प्रकार हैं। इनमें बारहवें पूर्व का नाम 'प्राणावाय' है । कायचिकित्सा आदि आठ अंगों में संपूर्ण आयुर्वेद का प्रतिपादन, भूत-शांति के उपाय, विषचिकित्सा और प्राण अपान आदि वायुओं के शरीर धारण करने की दृष्टि से कर्म के विभाजन का जिसमें वर्णन हो, उसे 'प्राणावाय' कहते हैं । " “कायचिकित्साद्यष्टांग आयुर्वेदः भूतिकर्मजांगुलिप्रक्रमः । प्राणापानिविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत् प्राणावायम् ।। " (तत्त्वार्थ राजवार्तिक अ० १ सू०२० ) इस पूर्व में मनुष्य के आभ्यंतर- मानसिक और आध्यात्मिक तथा वाह्य शारीरिक स्वास्थ्य के उपायों जैसे यम-नियम, आहार-विहार और औषधियों का विवेचन है । साथ ही दैविक, भौतिक, आधिभौतिक, जनपदध्वंसी रोगों की चिकित्सा विस्तार से विचार किया गया है । 'प्राणावाय' की परम्परा दिगंबराचार्य उगादित्य ने अपने प्रसिद्ध वैद्यक ग्रंथ 'कल्याणकारक' के प्रथम परिच्छेद के प्रारंभिक भाग में 'प्राणावाय' के इस भूलोक पर अवतरण और परंपरा का वर्णन किया है । भूलोक में मनुष्यों को रोगों से पीड़ित देखकर भरत चक्रवर्ती आदि मुख्य जनों ने आदिनाथ के समवसरण में उपस्थित होकर रोगरूपी दुःख से छुटकारा पाने के उपाय पूछे। तब भगवान आदिनाथ ने पुरुष, रोग, औषधि और काल - -इस प्रकार समस्त वैद्यक ज्ञान को चार भागों में बांटते हुए, इन चारों वस्तुओं 'वस्तुचतुष्टय' के लक्षण, भेद-प्रभेद आदि संपूर्ण विषय को मंक्षेप से वर्णन किया । इस प्रकार इस ज्ञान को प्रथम गणधरों और प्रति गणधरों ने प्राप्त किया; उनसे श्रुतिकेवलियों ने और उनसे, बाद में, अन्य मुनियों ने क्रमशः प्राप्त किया । इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए उग्रादित्य ने 'कल्याणकारक' नामक ग्रंथ की रचना की । जैन आयुर्वेद साहित्य : एक मूल्यांकन : ६६
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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