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________________ ३. पाणिनीय तन्त्रों का मन्थन कर सारभूत रत्नों को उपस्थित किया, जिससे अध्येताओं के समय और श्रम की बचत हुई । ४. उदाहरणों में उन ऐतिहासिक प्रयोगों और स्थानों के नामों को सुरक्षित रखा, जिनसे आज भी देश के सांस्कृतिक इतिहास के निर्माण में पर्याप्त सहायता मिलती है तथा इतिहास की अनेक गुत्थियां सुलझ सकती हैं । ५. उन साम्प्रदायिक शब्दों का साधुत्व प्रतिपादन किया, जिनकी अवहेलना अन्य सम्प्रदाय वाले वैयाकरण करते आ रहे थे । ६. उदाहरणों में जैन तीर्थंकरों, जैन राजाओं, जैन महापुरुषों और जैनग्रंथकारों के नाम सन्निविष्ट किये तथा उक्त शब्दों की व्यत्पत्तियां बतलायीं । ७. शब्दों में स्वाभाविक रूप से अनन्त शक्तियां स्वीकार कीं, फलतः एकशेष का त्यागकर अनेक शेष का निरूपण किया । यतः जैनेतर वैयाकरणों के अनुसार एक शब्द एक ही व्यक्ति का कथन करता है । अत: बहुत-से व्यक्तियों का बोध करना हो तो बहुत-से शब्दों का प्रयोग करके 'सरूपाणामेक शेष एक विभक्तौ' १।२।६४ सूत्र के अनुसार एक शेष किया जाता है। बहुवचन में एक रूप के शेष रहने पर बहुबचन बोधक प्रत्यय लगाकर बहुवचन शब्द बना लिये जाते हैं । अतएव व्यक्ति और जाति के स्वतन्त्र रूप से पृथक् होने के कारण एक शेष आवश्यक है । जैन वैयाकरण शब्द को अनेक धर्मात्मक मानते हैं, अतः एक ही शब्द परिस्थिति विशेष में विशेषण, विशेष्य, पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, कर्ता, कर्म, करण आदि रूपों में परिवर्तित होता रहता है। इसी कारण शब्द अनन्त धर्मात्मक वस्तु का वाचक है । उसका वाच्य न केवल व्यक्ति है और न जाति, किंतु जाति व्यक्त्यात्मक या सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही वाच्य है । अत: एक शेष मानने की आवश्यकता नहीं । अत: शब्द स्वभाव से ही एक, दो या बहुत व्यक्तियों का कथन करता है । ८. जैन शब्दानुशासनों के पंचांगपूर्ण होने के कारण अनुशासन में लाघव और स्पष्टता । ६. वर्णित विषय के क्रम-विवेचन की मौलिकता । १०. विकारों के उत्सर्ग और अपवाद मार्गों का निरूपण । ११. विषय - विवेचन में वैज्ञानिकता और मौलिकता का सन्निवेश । १२. ग्रन्थ- शैली की महनीयता । १३. संस्कृत भाषा में जैन शब्दानुशासनों का प्रणयन उस समय हुआ, जब पाणिनीय व्याकरण का सांगोपांग विवेचन हो चुका था। इतना ही नहीं, बल्कि उसके आधार पर कात्यायन तथा पतंजलि - जैसे विशिष्ट वैयाकरणों ने सैद्धांतिक गवेषणाएं प्रस्तुत कर दी थीं। इस प्रकार जैन वैयाकरणों के समक्ष पाणिनि की अनुपलब्धियां और अभाव पूर्तियां भी वर्तमान थीं । फलतः जैन आचार्यों ने उन ६२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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