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________________ महान् विद्वान थे। कातंत्र का प्रचार प्राचीन काल में बहुत था। संस्कृत भाषा को सरलता के साथ सीखने में यह व्याकरण बहुत सहायक है। कातंत्र में संज्ञाओं का कोई स्वतंत्र प्रकरण नहीं है, संधि-प्रकरण के पहले पाद में प्राय: सभी प्रमुख संज्ञाओं का उल्लेख कर दिया गया है। इस व्याकरण की 'सिद्धो वर्ण समाम्नाय:' यह प्रथम सूत्रीय घोषणा अत्यंत गंभीर है। इस सूत्र द्वारा वर्णों की नित्यता स्वीकार की गई है। इसमें प्रत्याहार का झमेला नहीं है। संधि, शब्द, विभक्त्यर्थ, स्त्री-प्रत्यय, समास, तिडन्त, कृदंत और तद्धित--- सभी प्रकरण इस व्याकरण में हैं। कातंत्र के तिडन्त प्रकरण में कालवाची क्रियाओं का नामकरण, वर्तमाना, परोक्षा, सप्तमी, पंचमी, शस्तनी, अघतनी, आशी:, श्वस्तनी, भविष्यंति और कियातिपत्ति के रूप में किया गया है। जैनेन्द्र और शाकटायन में लकारों का निरूपण है, किंतु हेमचंद्र ने अपने शब्दानुशासन में कातन्त्र सम्मत कालवाची क्रियाओं को स्थान दिया है। कातन्त्र व्याकरण के पठन-पाठन का प्रचार जैन-सम्प्रदाय में बहुत अधिक रहा है। इसकीएक प्रमुख विशेषता विराम में अनुस्वार का होना भी है। स्वर्गीय पं० पन्नालाल वाकलीवाल ने इसी व्याकरण के आधार पर 'बालबोध' नामक अति सरल व्याकरण लिखा है। कातन्त्र पर सकलकीत्ति द्वितीय कृत कातन्त्र रूपमाला लघुवृत्ति, दुर्गसिंह कृत कातन्त्र व्याकरण की वृत्ति और रविवर्माचार्य कृत कातन्त्र व्याकरण की वृत्ति उपलब्ध हैं । वर्द्धमान कवि की 'कातन्त्र विस्तार' नाम की टीका भी उपलब्ध है।" इस टीका में सूत्रों की व्याख्या के साथ अनेक नवीन उदाहरण भी सम्मिलित किए गए हैं। इसमें कई उदाहरण काशिका वृत्ति के हैं। कातन्त्र के रचयिता का नाम सर्ववर्मा होने से विद्वान् इनके जैन होने में सन्देह करते हैं। परन्तु इनके प्रथम सूत्र का सिद्ध' पद से प्रारम्भ होना, इनके अधिकांश टीकाकारों का जैन होना और जैन समाज में इस व्याकरण का विशेष प्रचार होना आदि तथ्य इनके जैन होने की प्रतीति उत्पन्न कराये बिना नहीं रहते । इस व्याकरण के विशेष अध्ययन से यह बात और भी पुष्ट होती है। फुटकर स्रोतों से प्राप्त सूचना के आधार पर निम्न जैन व्याकरण ग्रंथों की जानकारी और भी प्राप्त होती है। पांडव पुराण की प्रशस्ति से अवगत होता है कि १२२४ सूत्र प्रमाण चिंतामणि' नाम का शब्दानुशासन आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा था। यह तीन अध्यायों में विभक्त था तथा प्रत्येक अध्याय में चार पाद थे। इस ग्रंथ पर द्वितीय समन्तभद्र ने 'चिंतामणि' व्याकरण-टिप्पण भी लिखा है । ग्रन्थ-प्रमाण के अनुसार यह व्याकरण उपयोगी है। यह प्राकृत भाषा का अनुशासन करता है। कन्नड़ भाषा का व्याकरण संस्कृत भाषा में अकलंक देवभट्ट ने लिखा है। इस व्याकरण का नाम 'शब्दानुशासन' है। कन्नड़ भाषा और साहित्य के विद्वानों में इस ग्रंथ का बड़ा सम्मान है। आज भी यह व्याकरण अपनी उपयोगिता के ६० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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